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________________ ( 55 ) अन्तिम पद्य ग्रन्थ में रहा हो, और वह लेखकोंकी कृपासे छूट गया हो क्योंकि ग्रंथमें अन्तिम समाप्ति-सूचक कोई प्रशस्ति लगी हुई नहीं है । यह प्रशस्ति ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बईको सम्बत् १७७५ की लिखी हुई प्रति परसे ली गई है। श्राद्य प्रशस्तिके पद्योंसे यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ राजा अमोघवर्षके विवेकसे राज्यत्याग देनेके बाद लिखा गया है । अतः इस ग्रन्थकी रचना सन् ८०७ के बाद हुई जान पडती है । ११वीं प्रशस्ति 'पुराणसार' की है, जिसके कर्ता मुनि श्रीचन्द्र हैं । जिनका परिचय १०वीं प्रशस्तिमें दिया गया है । १२०वीं प्रशस्ति 'शान्तिनाथपुराण' की है जिसके कर्ता भट्टारक श्री भूषण हैं। जिनका परिचय ७१वीं प्रशस्ति में दिया गया है। १२१वीं प्रशस्ति 'वृषभदेवपुराण' की है जिसके कर्ता भट्टारक चन्द्रकीर्ति हैं, जिनका परिचय (हवीं पार्श्वपुराणकी प्रशस्तिमें दिया गया है । १२२वीं प्रशस्ति 'सुभगसुलोचनाचरित' की है जिसके कर्ता भट्टारक 'वादिचन्द्रसूरि' हैं, जिनका परिचय १८वीं 'ज्ञानसूर्योदय नाटक' की प्रशस्तिमें दिया गया है । १२३ वो और १२४ वीं प्रशस्तियों आचार्य पुंगव धरसेनके शिष्य भगवान पुष्पदन्त भूतबलीके पट्खण्डागमकी प्रसिद्ध टीका धवला और गुणधराचार्य 'पेज्जदोसपाहुड' ( कषाय प्राभृत) की टीका जयधवलाकी हैं। जिनमेंसे प्रथमके कर्ता आचार्य वीरसेन और दूसरीके वीरसेन तथा उनके शिष्य जिनसेनाचार्य हैं । श्राचार्य वीरसेन और जिनसेन अपने समयके महान विद्वान और तपस्वी योगीन्द्र थे । आचार्य जिनसेननं १ अपने गुरु ง -श्री वीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुपथः । स नः पुनातु पूतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ॥ लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥ - आदिपु०
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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