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________________ . (५८) भिन्न हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं । चौथे श्रीनन्दी वे हैं जिनका उल्लेख होयसल वंशके शक सं० १०४७ के श्रीपाल त्रैविद्यवाले शिलालेखमें किया गया है । और पांचवें श्रीनन्दीका उल्लेख ऊपर किया जाचुका है । इन चारोंमें से किसी भी श्रनन्दीके साथ गुरुदास नामके विद्वानका कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता, अतएव सामग्रीके अभाव में यह कहना कठिन है । कि प्रस्तुत श्रीनन्दी और गुरुदास कब हुए हैं। यह विशेष अनुसंधान की अपेक्षा रखता 1 है 1 व प्रशस्ति 'भावशतक' नामक ग्रन्थ की है। जिसके कर्ता कवि नागराज हैं । कार्पाटि गोत्र रूप समुद्रकेलिये चन्द्रसम मुनि 'श्रीधन' हुए जो 'विद्याधर' इस नामसे लोक में विश्रुत हुए । इनका पुत्र द्यालपाल था और द्यालपालकी भार्या लक्ष्मीसे उत्पन्न पुत्र नागराज नामका हुआ। प्रस्तुत नागराज ही 'भाव' का कर्ता है। नागराज नामके कई विद्वान हुए हैं । समन्तभद्र भारतीनामस्तोत्रकं कर्ता भी नागराज हैं। और नागराज नामके एक कवि शक १२५३ में हो गए हैं ऐसा कर्णाटक कविचरितसे ज्ञात होता है । भावशतक के कर्ता नागराज क्या इन दोनोंसे भिन्न हैं या एक ही हैं । इसके जाननेका साधन श्रभीतक उपलब्ध नहीं है । वह विशेष अन्वेषण से प्राप्त हो सकेगा। va प्रशस्ति 'तत्त्वसार- टीका' की है जिसके कर्ता भ० कमलकीर्ति हैं । मूल ग्रन्थ प्राचार्य देवसेनकी प्रसिद्ध कृति है जो विमलसेन गणधरक शिष्य थे । भट्टारक कमलकीर्ति काष्ठासंघ, माथुरगच्छ और पुष्करगणके भट्टारक क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, संयमकोर्तिकी परम्परामें हुए और भ० अमलकीर्तिके शिष्य थे । उन्होंने कायस्थ भाथुरान्वयमें अग्रणी अमरसिंहके मानसरूपी अरविन्दको विकसित करनेके लिए दिनकर (सूर्य) स्वरूप इस टीकाकी रचना की है । अर्थात् यह टीका उनके लिये लिखी गई और उन्हें बहुत पसन्द आई है । एक कमलकीर्ति नामके विद्वान और हुए हैं जो भ० शुभचन्द्र के पट्टधर थे। महाकवि रहधूने अपने 'हरिवंशपुराण' की प्रशस्ति में उनका
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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