SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (५७ ) . होने के साथ साथ कुशल टीकाकार भी थे । टीकाकारने प्रन्थके गहन एवं विषम-पदोंका विवेचन कर अभ्यासार्थियोंके लिये उसे सुगम बना दिया है। चूंकि टीकाके अन्तमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं है इस कारण टीकाकार और उनके गुरुके समयादि सम्बन्धमें निश्चयतः कहना संभव नहीं है । पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रस्तुत धनन्तवीर्य विक्रम की ११वीं शताब्दीके विद्वान वादिराज और प्रभाचन्द्र से पूर्व वी हैं। और वे सम्भवतः ६ वी दशमी शताब्दीके विद्वान जान पड़ते हैं। __ ८४वीं और वीं प्रशस्तियां क्रमशः 'प्रायश्चित्तसमुच्चय सचू. लिकवृत्ति' और 'योगसंग्रहसार' नामके ग्रन्थों की है, जिनके कत्ता श्रीनन्दोगुरु हैं जो गुरुदासके शिष्य थे। प्रस्तुत वृत्तिकी श्लोक संख्या दो हजार श्लोक प्रमाण बतलाई गई है। श्रीनन्दी नामके अनेक विद्वान हो चुके हैं उनमें एक श्रीनन्दी कल्याणकारक वैद्यक ग्रन्थके कर्ता उपदिन्याचार्य के गुरु थे । इनका समय विक्रम की नवमी शताब्दी है। दूसर श्रीनन्दी बलात्कारगणके प्राचार्य थे जो श्रीचन्द्र के गुरु थे। श्रीचन्द्र ने अपना पुराणसार वि० सं० १०८० में बनाकर समाप्त किया है, अतः इन श्रीनन्दीका समय ग्यारहवीं शताब्दीका मध्य काल जानना चाहिये । तीमर श्रीनन्दी वे हैं जिनका उल्लेख वसुन्धाचार्यने अपने उपासकाध्ययनकी प्रशस्ति में किया है और उन्हें नयनन्दीका गुरु सूचित किया है जो वसुनन्दी प्राचार्य से कमसे कम ७५ वर्ष पूर्व हुए होंगे। संभवतः यह श्रीनन्दी बे भी हो सकते है जो श्रीचन्द्र के गुरु थे। और x देखो, कल्याणकारक प्रशस्ति । * देखो जन साहित्य और इतिहास पृष्ठ ३३५ * कित्ती जस्सिंदु सुम्भा सयलभुवणमझे जहिच्छ भमिक्षा णिरचं सा सज्जणाणं हिययवयण सोए णिवासं करे। जो सिद्ध तंबुरासि सु-णयतरणिमासेज्ज लीलाए तिएणो , वरणेउ को ममन्यो मयल गुणगण सेवियड्ढो वि लोए ।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy