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________________ (३८) इस संधि वाक्यमें ठक्कुर माइन्द सुतके स्थानमें ठक्कुर माइन्दस्तुत होना चाहिए। और जिनदेवके स्थान पर नागदेव होना चाहिए। ऐसा संशोधन हो जानेसे अन्धकी श्राद्य प्रशस्तिके साथ इसका सम्बंध ठीक बैठ जाता है। यह हो सकता है कि नागदेवके स्मरपराजय नामक ग्रन्थकी टक्कर माइन्दने बहुत प्रशंसा की हो । परन्तु इस ग्रंथके रचयिता जिनदेव नहीं, नागदेव हैं। भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे मुद्रित 'मदन पराजय' की प्रस्तावनामें भी पं० राजकुमारजी साहित्याचार ने उक्त पुप्पिका वाक्यमें भी ऐसा ही संशोधन किया है । अब रही समयकी बात, प्रथकर्ताने ग्रन्थमें कोई रचनासमय नहीं दिया, जिससे यह निश्चित करना कठिन है कि नागदेव कब हुए हैं। चूंकि वह प्रति जिस परसे यह प्रशस्ति उद्धृत की गई है सं० १५७३ की लिखी हुई है। अतः यह निश्चित है कि उन ग्रन्थ १५७३ से बादका बना हुआ नहीं है, वह उससे पहले ही बना है। कितने पूर्व बना यह निश्चित नहीं है, पर ऐसा ज्ञात होता है कि ग्रंथका रचनाकाल विक्रमकी १५ वीं शताब्दीसे पूर्वका नहीं है। ५५वीं, ५६वीं और १०८वीं प्रशस्तियां क्रमसे 'श्वेताम्बर पराजय' (केवलभुक्निनिराकरण ) 'चतुविशति संधान स्वोपक्ष टीका' सहित और 'सुखनिधान' नामके ग्रन्थों की हैं, जिनके कर्ता कवि जगन्नाथ है। इनके गुरु भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति थे । इनका वंश खंडेलवाल था और यह पोमराज श्रेष्ठीके सुपुत्र थे । इनके दूसरे भाई वादिराज थे जो संस्कृत भाषाके प्रौढ विद्वान् और कवि थे। इन्होंने संवत् १७२६ में वाग्भट्टालङ्कार की 'कविचन्द्रिका' नामकी एक टीका बनाई थी। इनका बनाया हुश्रा 'ज्ञान लोचन' नामका एक संस्कृत स्तोत्र भी है जो माणिकचन्द्रग्रन्थमालासे प्रकाशित हो चुका है। ये तक्षक + (वर्तमान टोडा) नामक नगरक निवासी थे, इनमें ॐ देखो मदनपराजयकी प्रस्तावना । +टोडा नगरका प्राचीन नाम 'तक्षकपुर' था। यहां भट्टारक नरेंद्रकीर्ति रहते थे। इनके समयमें टोडामें संस्कृतभाषाके पठन-पाठनादिका अच्छा
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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