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________________ दिया हुआ नहीं है । ग्रंथ प्रति भी बहुत अशुद्धियोंको लिए हुए है इसीलिये सामग्रीके प्रभावले उस पर विशेष विचार करना सम्भव नहीं है। यह प्रति सं० १८३६ की लिखी हुई है । ग्रंथके भाषा साहित्यादि परसे वह ११ वी १६ वीं शताब्दीकी रचना जान पड़ती है। ५४ वीं प्रशस्ति 'मदनपराजय' की है, जिसके कर्ता कवि नागदेव हैं। नागदेवने प्रशस्तिमें अपने कुटुम्बका परिचय इस प्रकार दिया हैचंगदेवका पुत्र हरदेव, हरदेवका नागदेव, नागदेवके दो पुत्र हुए हेम और राम, ये दोनों ही वैद्यकलामें अच्छे निष्णात थे। रामके प्रियंकर और प्रियंकरके मल्लुगित और मल्लुगितके नागदेव नामका पुत्र हुमा जो इस मथक रचयिता हैं। जो अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपनेको अल्पज्ञ तथा छन्द अलंकार, काव्य, व्याकरणादिसे अनभिज्ञता प्रकट करता है । हरदेवने सबसे पहले 'मदनपराजय' नामका एक ग्रंथ अपभ्रंश भाषाके पद्धडिया और रड्ढाछंदमें बनाया था । नागदवने उसीका अनुवाद एवं अनुसरण करते हुए उसमें यथावश्यक मंशोधन परिवर्धनादिके साथ विभिन छंदों भादिसे ममलंकृत किया है। यह प्रथ म्बएड रूपक काव्य है, जो बड़ा ही सरस और मनमोहक है इसमें कामदेव राजा मोहमंत्री, अहंकार और अज्ञान प्रादि सेनानियों के साथ जो भावनगरमें राज्य करते हैं। चारित्रपुरके राजा जिनराज उनके शत्रु हैं क्योंकि वे मुनिरूपी कम्यासे पाणिग्रहण करना चाहते हैं । कामदेवने राग. दंष नामके दूत द्वारा महाराज जिनराजकं पास यह संदेश भेजा कि पाप या तो मुक्ति कन्यास अपने विवाहका विचार परित्याग कर अपने प्रधान सुभट दर्शन, ज्ञान, चारित्रको मुझे सोंप दें, अन्यथा युद्धके लिए तय्यार हो जांय । जिनराजने उत्तरमें कामदेवसे युद्ध करना ही श्रेयस्कर सममा और अन्नमें कामदेवको पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया। ___ यहा यह बात अवश्य नोट करने की है कि ग्रन्थकी सन्धि-पुष्पिकानों में निम्न वाक्य पाया जाता है जिम्मका अशुद्ध रूप होनेके कारण सम्बन्ध टीक नहीं बैठता । “इति श्री ठक्कर माइन्द सुतजिनदेवविरचिते स्मरपराज्ये"
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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