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________________ ( ३६ ) थी। इनका एक 'चतुर्विंशति जिनस्तोत्र' भी मिला है जो अनेकांतवर्ष " किरण ३ में प्रकाशित हो चुका है। इनके प्रधान शिष्य पं० मेधावी थे। महारक रस्मकीर्ति भी इन्हींक शिष्य थे। जिन्होंने सं० १५४१ में अपना उकय पूरा किया है। यह दिल्ली गद्दीके भट्टारक थे और उस पर बैठनेका समय वि० सं० १९०७ पट्टावलियों में लिखा मिलता है। तीसरे जिनचंद्र वे हैं जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके शिला-वाक्य मं० १५ (६६) में किया गया, जो शक संवत् १०२२ (वि० सं० ११५७) के लगभगका उत्कीर्ण किया हुआ है। चौथे जिनचंद्र भास्करनंदीके गुरु हैं ही, जो सर्वसाधुमुनिके शिष्य थे। ये चारों ही जिनचंद्र एक दूसरेसे भिन्न प्रतीत होते हैं। पर प्रस्तुत जिनचंद्रका क्या समय है यह निश्चयतः नहीं बतलाया जा सकता। पर अनुमानसे वे विक्रमकी १३ वी १४ वीं शताब्दीके विद्वान् जान पड़ते हैं । ५१ वीं प्रशस्ति 'पदार्थदीपिका' नामक ग्रन्थ की है जिसके का भहारक देवेन्द्रकीर्ति हैं, जो भट्टारक जगतकीर्तिके पद पर प्रतिष्ठित हए थे। प्रस्तुत ग्रंथ 'समयसार' ग्रंथकी टीका है, जिसे भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिने ईसरदा प्राममें संवत् १७८८ में भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशीको बना कर समाप्त किया था। इससे भद्दारक देवेन्द्रकीर्ति १८ वीं शताब्दीके विद्वान् थे। १२ वीं प्रशस्ति 'नागकुमारपंचमी कथा' की है, जिसके कर्ता पं० धरसेन हैं जो वीरसेनके शिष्य थे और उन्होंने सोढदेव तथा रहके लिये उक्त पंचमी कथाको गोनदेवकी बस्तीमें बनाया था। प्रस्तुत धरसेन कब और कहाँ हुए और इनका जीवन-सम्बन्धी क्या कुछ परिचय है यह कुछ शात नहीं हो सका। ५३ वीं प्रशस्ति 'महीपालचरित' की है, जिसके कर्ता भट्टारक चारित्रभूषण हैं, जो वाणी (सरस्वती) नामक गच्छ और सारकर गणके विद्वान् रत्ननन्दीके शिष्य थे । प्रशस्तिमें दी हुई गुरुपरम्परामें विजयचन्द्रसरि, खेमकीर्ति, रत्नाकरसूरि, अभयनन्दी, जयकीर्ति और रत्ननंदी मामके विद्वानोंका उखेख किया गया है। पर प्रथस्तिमें ग्रंथरचनाका समय
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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