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________________ (३५) कवि दीक्षित देवदराका समय विक्रमकी १६वीं शताब्दीका पूर्वार्ध जान ५०वीं प्रशस्ति 'ध्यानस्तव' नामक ग्रंथ की है, जिसके कर्ता भास्करनन्दी हैं । जो मुनि जिनचंद्रके शिष्य थे और जिनचंद्र सर्वसाधुके शिष्य थे। जैसा कि 'तत्वार्थवृत्ति' की अंतिम प्रशस्तिके निम्न पद्योंसे प्रकट है : नो निष्ठीवेन्न शेते वदति च न परं ह्योहि याहीति यातु, नो कण्डूयेत गात्रं व्रजति न निशि नोद घट्टयेद्वान दत्ते । नावष्टं भाति किंचिद्गुणनिधिरिति यो बद्धपर्ययोगः, कृत्वा सन्यासमन्ते शुभगतिरभवत्सर्वसाधुः स पूज्यः ।।२।। तस्याऽऽसीत्सुविशुद्धदृष्टिविभवः सिद्धान्तपारंगतः, शिष्यः श्रीजिनचंद्रनामकलितश्चारित्रभूषान्वितः । शिष्यो भास्करनन्दिनाम विवुधस्तस्याऽभवत्तत्ववित् , तेनाऽकारि सुखादिबोधविषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ॥३॥ भास्करनन्दीकी इस समय दो कृतियों सामने हैं-एक ध्यानस्तव और दूसरी तत्वार्थवृत्ति, जिसे 'सुखबोधवृत्ति' भी कहा जाता है। इनमें तत्त्वार्थवृत्ति प्राचार्य उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रकी संक्षिप्त एवं सरल ब्याख्या है। इसकी रचना कब और कहाँ पर हुई यह ग्रन्थ प्रतिपरसे कुछ भी मालूम नहीं होता। जिनचन्द्रनामके अनेक विद्वान् भी हो गए हैं उनमें प्रस्तुत जिनचन्द्र कौन हैं और उनका समय क्या है यह सब सामग्रीके प्रभावमें बतलाना कठिन जान पड़ता है । एक जिनचंद्र चंद्रनंदीके शिष्य थे, जिसका उल्लेख कबाड़ कवि पम्पने अपने शांतिनाथ पुराणमें किया है। दूसरे जिनचंद्र वे हैं जो भट्टारक जिनचंद्रके नामसे लोकमें विश्रुत है और जो भ० पानंदीके अन्वयमें शुभचंद्रके पह पर प्रतिष्ठित हुए थे और जिनका समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दी है । इन्होंने सं० १५४८ में शहर मुबासामें सहस्रों मूर्तियोंको प्रतिष्ठा जीवराज पापड़ीवाला के अनुरोधसे कराई
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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