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________________ १९२ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह (इसके बाद 'अणुवदगुरुबालेदू' से लेकर 'रणय-णिक्खेव-पमाणं' तक ५ गाथाएं वे ही हैं जो परमागमसारकी प्रशस्तिमे पृ० १६१ पर दर्ज हैं।) गाद-णिखिलत्य-सत्यो सयल-गरिदेहि पूजिनो विमलो। जिण-मग्ग-गमण-सूरो बयउ चिरं चारुकित्तिमुणी ॥१२२॥ वर-सारत्तय-णिउणो सुद्धं परो विरहिय-परभाओ(वी)। भवियाणं पडिबोहणपरो पहाचंदणाममुणी ॥१२३॥ [नोट--श्राराके जैनसिद्धान्त-भवनकी ताडपत्रीय प्रतिमें ११६ वी गाथाके बाद 'इतिभावसंग्रहः समाप्तः' लिखकर अन्तकी ये ७ गाथाएं प्रशस्तिरूपसे दी हैं, जब कि मा० प्र० मा० के 'भावसंग्रहादि' ग्रन्थमें 'भावत्रिभंगी' के नामसे संग्रहीत इस ग्रन्थमें वे नहीं पाई जाती।] १३०. आयज्ञानतिलकसटीक (भट्ट वोसरि ) आदिभाग: नामिऊण नमियनमियं दुत्तरसंसारसायरुत्तिन्नं । सबन्नं वीरजिणं पुलिंदिणि सिद्धसंघ च ॥१॥ जं दामनन्दिगुरुणो मण्यं श्रायाण जाणि [य] गुझं। तं प्रायनाणतिलए वोसरिणा भन्नए पयर्ड ॥२॥ (मूल) सिद्धान्ध्वजादिचिरसूत्रितनामधेयान् सर्वाङ्गसौहृदशुभस्थितिसौम्यपातान् । स्वस्वामिसद्ग्रहयुतेक्षित-फुल्लपूर्णानायान्प्रणम्य बलिनः शुभकार्यसिद्धये ॥१ शर्वाय शास्त्रसारेण यत्कृतं जनमडनं । तदायज्ञानतिलकं स्वयं वित्रियते मया ॥२।। (स्वो० टीका) अन्तभाग : विमलविहूसियदेहो जो नग्गाइ(?)माणुसो थुइ पढह । स पुलिदिणि घाणइ सया आयाण तस्स तत्राणं ॥५॥xxx इति श्रीदिगम्बराचार्य-पंडितश्रीदामनदि-शिष्य-भवोसरि-विरचिते सायश्रीटीकायशानसिलके चक्रपूनाप्रकरणं समाप्तं ॥२५॥
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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