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________________ मावसंग्रह-प्रशस्ति १६१ सगगा(का)ले हु सहस्से विसय-तिसट्रीगदे(१२६३) दु विसबरिसे । मग्गसिर-सुद्धमत्तमि गुरुवारे गंथ संपुण्णा ॥२२४॥ अणुवद-गुरु-बालेंदू महन्वदे अभयचंद सिद्धति । सत्येऽभयसूरि-पभा(हा)चदा खलु सुयमुणिस्त गुरू ॥२२५।। सिरिमूलसंघ-देसियगण-पुत्थयगच्छ-कोंडकुदाणं । परमरण-इंगलेसर-वलिम्मि बादस्स मुणिपहायस्म ॥२६॥ सिद्धताहयचदस्स य सिस्मो बालचंदमुणिपवगे। सो भविय-कुवलयाणं पाणंदकरो सया जब उ ॥२२॥ मद्दागम-परमागम-तक्कागम-णिरवसेसवेदी हु। विजिद-सयलण्णवादी जयउ चिर अभयसूरिसिद्धति ॥२२८॥ णय-णिक्खेव-पमाणं जाणित्ता विजिय-सयल-परममनो। वरणी(णि)वा-णिवह-बंदिय-पय-पग्मो चारुकित्तिमुणी ॥२२६॥ वरसारत्तयणी(णिउ)णो सुद्धप्परो विरहिय-परभावो। भवियाण पडिबोहण-परो पहाचंदणाममुणो ॥२३०॥ [इति] श्रीमत्श्रुतमुनि-विरचित-परमागमसारः समाप्तः। [बम्बई ऐ० ५० स० भ० प्रति १२६. भावसंग्रह ( श्रुतमुनि ) आदिमाग : खविदघणघाइकम्मे अरहते मुविदिदत्य-णिवहे य । सिद्धटुगुणे सिद्ध रयणत्तयसाहगे थुवे साहू ॥१॥ इदि वदिय-पंचगुरू सरूवसिद्धत्य भवियबोहत्थ । सुत्तुत्तं मूलुत्तर-भावसरूवं पवक्खामि ॥२॥ मन्तभाग: इदि गुणमग्गणठाणे भावा कहिया पबोह-सुयमुणिणा। सोहंतु ते मुणिंदा सुयपरिपुरणा दुगुणपुण्णा ॥११॥
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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