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________________ (२२) और वहां महीनों ठहरते थे । आप अनेक शिष्य थे। सम्यन्व. कौमुदी संस्कृतकी एक प्रति सं० १८५१ में भट्टारक ललितकीर्तिक पठनार्थ जेठ वदी १२ को फर्रुखनगरकं जैन मन्दिरमें माहबरामने लिखी थी। भधारक ललितकीर्तिने महापुराणकी इस टीकाको तीन भागोंमें बांटा है जिसमें प्रथम भाग ४२ पोका है, जिसे उन्होंने सं० १८८४ के मंगशिर शुक्ला प्रतिपदा रविवारक दिन समाप्त किया था , और ४३३ पर्वसे ४७वे पर्व तक ग्रन्थकी टीकाका दुसरा भाग है जिसे उन्होंने सम्बत १८८५में पूर्ण किया है। इनके अतिरिक्त उत्तरपुराणको टीका सं० १८८८ में बनाकर समाप्त की गई है। महापुराणकी इस टीकाके अतिरिक्र और भी अनेक ग्रन्थोंके नाम मिलने है जो भ. ललितकीर्तिक बनाये हुए कहे जाते हैं । पर चूँ कि वे ग्रन्थ इस समय अपने सामने नहीं हैं जिससे यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उनके रचयिता भी प्रस्तुत ललितकोर्ति ही हैं या कोई दूसरे । उन प्रन्थोंके नाम इस प्रकार हैं: १ सिद्धचक्रपाठ २ नन्दीश्वरव्रतकथा ३ अनन्तव्रतकथा ४ सुगन्धदशमीकथा ५ षोडशकारण कथा ६ रत्नत्रयव्रतकथा ७ आकाश पंचमीकथा ८ रोहिणीव्रतकथा धनकलशकथा १० निर्दोष सप्तमी कथा ११ लब्धिविधानकथा १२ पुरंदरविधान कथा १३ कर्मनिर्जरचतुर्दशी कथा, १४ मुकुटसप्तमीकथा १५ दशलाक्षिणीव्रत कथा १६ पुष्पांजलिव्रतकथा १७ ज्येष्टजिनबरकथा १८ अक्षयनिधि दशमी कथा १६ निःशल्याष्टमी विधानकथा २० रक्षा विधानकथा २१ श्रुतस्कंधकथा २२ कंजिकाव्रत कथा और २३ सातपरमस्थानकथा और २४ षटरस कथा। १६वीं प्रशस्ति पंचनमम्कारदीपक' की है जिपक कर्ना भट्टारक में मुझे कुछ वर्ष पूर्व ३-४ बादशाही फर्मान दिखलाए भी थे, जो अरबी भाषामें लिखे हुए थे । भ. देवेन्द्रकीर्तिजीको चाहिए कि वे उन फर्मानोंको जरूर प्रकाशित करें ।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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