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________________ ( १० ) arrare, सैकड़ों मूर्तियोंका निर्माण कराया और उनके प्रतिष्ठादि महोत्सव कार्य भी सम्पन्न किये हैं । इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियोंके कितने ही अभि लेख सं० १४८० से १४६२ तकके मेरी नोट बुकमें दर्ज हैं। इनके प्रतिरिक्त अनेक मूर्तियां और उनके अभिलेख श्रौर नोट किये जाने को हैं, जिन सबके संकलित होने पर तत्कालीन ऐतिहासिक बातोंके अन्वेषणमें बहुत कुछ सुविधा प्राप्त हो सकती है । भ० सकलकीर्तिने सं० १४८१ में सघ सहित बड़ालीमें चातुर्मास किया था और asia अमीरा पार्श्वनाथ चैत्यालयमें बैठकर 'मूलाचारप्रदीप' नामका एक संस्कृत ग्रन्थ सं० १४८१ की श्रावण शुक्ला पूर्णिम.. को अपने कनिष्ट भ्राता जिनदासके अनुग्रहसे पूरा किया था । इसका उल्लेख गुजराती कविता निम्न उपयोगी श्रशसे जाना जा सकता है। -- तिहि अवसरे गुरु आविया, बाली नगर मकार रे, चतुर्मास तिहां करो शोभनो, श्रावक कीधा हर्ष अपाररे । अमीरे पधरावियां, बधाई गावे नरनार रे, सकल संघ मिल बंदियां, पाम्या जय जयकार रे || X X X X संवत् चौदह सौ पूर्णिमा दिवसे पूरण कर्या, मूलाचार महंतरे ॥ X X मी भला, श्रावण मास लसंतरे, X भ्राताना अनुग्रह थकी कीधा प्रन्थ महानरे || X * १५ शताब्दी में बडाली जन धनसे सम्पन्न नगर था, उस समय वहां हूमड़ दि० जैन श्रावकों की बहुत बडी बस्ती थी । वहांका अमीरा पार्श्वनाथका दि० मन्दिर बहुत प्रसिद्ध था । उस समय देवसी नामक एक बीसाहूमड़ने केशरियाजीका संघ भी निकाला था और भ० सकलकीर्ति उस समय के प्रसिद्ध विद्वान भट्टारक थे, बागढ़ और गुजरातमें उनका अच्छा प्रभाव था । ये अपने शिष्य प्रशिष्यादि सहित उन प्रान्त में विहार करते रहते थे । 1
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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