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________________ (&) टीका बनाई थी और जो सागरचन्द्र मुनिके शिष्य थे। उनकी शेष कृतियों के नाम इस प्रकार हैं: सागार - अनगारधर्मामृत स्वोपज्ञटीका सहित, मूलाराधनादर्पण, सहस्रनाम मूल व स्वोपज्ञटीका सहित, पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री साहूमल और सोनागिरके भट्टारकीय ज्ञानभण्डार में उपलब्ध है । जिनयज्ञकरुप, fafe स्मृतिशास्त्र सटीक, नित्यमहोद्योत, अमरकोष टीका ( अनुपलब्ध ) श्राराधनासारटीका ( अनुपलब्ध ) क्रियाकलाप, अध्यात्मरहस्य ( अनुपलब्ध ), राजीमतिविप्रलंभ, ज्ञानदीपिका, भरतेश्वराभ्युदय, प्रमेयरत्नाकर काव्यालंकार टीका, रत्नत्रयविधान और अष्टांग हृदयोद्योतिनी टीका | D पंडित श्रशाधरजीने सं० १२८५ में जिनयज्ञकल्प. सं० १२६२ में त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र, सं० १२६६ में सागारधर्मामृत टीका और सं० १३०० में नगारधर्मामृत टीकाका निर्माण किया है। शेष सब ग्रन्थ सं० १२८५ और सं० १३०० के मध्यवर्ती समयमें रचे गये हैं। इनका विशेष परिचय 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक पुस्तककं पृष्ठ १२६ में देखना चाहिए । वीं, ७५वीं और १४२वीं प्रशस्तियाँ जम्बूस्वामिचरित हरिवंशपुराण और रामचरित्रकी हैं जिनके कर्ता ब्रह्मजिनदास हैं जो कुन्दकुन्दान्वय सरस्वतीगच्छुके भट्टारक सकलकीर्तिके कनिष्ठ भ्राता और शिष्य ये 1 ये मदनरूपी शत्रुको जीतने वाले ब्रह्मचारी, क्षमानिधि, षष्ठमादितपके विधाता और अनेक परीष होंके विजेता थे । इन्होंने अनेक देशों में विहार करके जनताका कल्याण किया था - -उन्हें सन्मार्ग दिखलाया था । ये जिनेन्द्र के चरणकमलोंके iate, देव-शास्त्र-गुरुकी भक्रिमें तत्पर, प्रत्यन्त दयालु तथा सार्थक जिनदास नाम से प्रसिद्धिको प्राप्त थे और प्राकृत, संस्कृत, गुजराती तथा हिंदी भाषा के अच्छे विद्वान एवं कवि भी थे। इनके गुरु भट्टारक सकलकीर्ति प्रसिद्ध. विद्वान थे, जिनका संस्कृत भाषा पर अच्छा अधिकार था, तात्कालिक भट्टारकोंमें इनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी । इन्होंने अपने समय में अनेक मन्दिर * पंडित हीरालालजीले ज्ञात हुआ है कि सहस्रनामका प्रकाशन हाल हमें भारतीयज्ञानपीठ काशीले हो चुका है।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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