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________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिमंग्रह इस ग्रन्थके भावित ('भावयामास') होनेसे ही यह नाम बादको दिया गया है ? विद्यानंदिके नामका दूसग भी यशोधरचरित है जिसकी प्रशस्ति इससे पहले नं० ८ पर दी गई है। दोनोंमें विद्यानन्दीको गुरुपरम्परा एक है और पद्योंका कितना ही साग्य है। फिर भी दोनोंको रचनापरसे सर्वथा एक नहीं कहा जा सकता । १०. श्रीपालचरित्र ( श्रुतसागर ) आदिभाग: अर्हतः संस्तुवे सिद्धान वंदे निग्रंथनायकान् । श्रयामि पाठकान् सेवे साधूनाराधये मुदा ॥१॥ सिद्धान् जगच्छिरोरत्नप्रायान् वंदामहे मदा।। त्रिशुद्धथ षा यदाऽध्येति मानवः श्लाघ्यते तदा ॥२॥ मंसारसरितानाथ-समुत्तरण कारणम् ।। जिनं नत्वा ब्रुवे वृत्तं श्रीपालनृपतेः शुभम् ॥३॥ (मध्यका कथाभाग गद्यात्मक है) अन्तभाग: सिद्धचक्रवतात्मोऽयमीदृशाऽभ्युदयो बभौ । निःश्रेयसमितोऽस्मभ्यं ददातु स्वगति प्रभुः ॥१॥ श्रीविद्यानंदिपादाब्जे मत्तगेणधीमता। श्रृतादिसागरेणेयं सपत्पालकथा कृता ॥२॥ इति श्रीपालनृपचरित्रं समाप्तं । ११. श्रीपालचरित्र (ब्र० नेमिदत्त) आदिभाग: नत्वा श्रीमजिनाधीशं सुराधीशाचिंतक्रमं । श्रीपालचरितं वक्ष्ये सिद्धचक्रार्चनोत्तमं ॥१॥
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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