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________________ किया है। जो सिद्धभूपद्धति ग्रन्थ पद पद पर अत्यन्त विषम अथवा कठिन था वह वीरसेनकी उक्त टीकासे मितुओंके लिये अत्यन्त सुगम हो गया । यह अन्य किस विषयका था, इसकी कोई सूचना कहोंसे प्राप्त नहीं होती। हाँ, श्रद्धय 'प्रेमी'जीने उसे गणितका अन्य बतलाया है। हो सकता है कि वह गणितका ग्रन्थ हो अथवा अन्य किसी विषयका । यदि गणितका ग्रन्थ होता तो श्राचार्य वीरसेन और जिनसेन उसका धवला जयधवलामें उल्लेख अवश्य करने । अस्तु, खेद है कि ऐसा महत्वपूर्ण ग्रन्थ आज भी हमारी आंखोंसे श्रोझल है। नहीं मालूम किसी भण्डारमें उसका अस्तित्व है भी, अथवा नहीं । वास्तवमें इस दिशामें समाजकी उपेक्षा बहुत खलती है । उसके प्रमादसे जैन संस्कृतिकी कितनी ही महत्वपूर्ण कृतियों दीमकों व कीटकादिकों का भय बन गई और बनती जा रही हैं। धवला टोकाको अन्तिम प्रशस्तिका पाठ लेग्वकोंकी कृपासे कुछ भ्रष्ट एवं अशुद्ध हो गया है। डा. हीरालालजी एम० ए० ने धवलाके प्रथम ग्वएडमें प्रशस्तिके उन पद्योंका कुछ संशोधन कर उसे शक सम्बत् ७३८ (वि० सं० ८७३) की कृति बतलाया है । परन्तु बाबू ज्योतिप्रसादजी एम० १० लखनऊने उसे विक्रम सम्बत् ८३८ की रचना बतलाया है । और डा• हीरालालजीके द्वारा संशोधित पाठको अशुद्ध बतलाते हुए ज्योतिष के आधारसे उन गणनाको भ्रामक ठहराया है। इस कारण धवला टीकाका रचनाकाल अभी विवादका विषय बना हुआ है। उसके सम्बन्धमें अभी और भी अन्वेषण करनेकी आवश्यकता है, जिससे उक्त दोनों मान्यनाओं पर पूरा विचार किया जा सके और अन्तिम निष्पक्ष निर्णय किया जा सके। इसके लिये हैदराबादके आस-पासके प्राचीन स्थानों, मूर्तिलेखों, शास्त्रभंडारों और शिलालेखोंका संकलन एवं मनन करनेका प्रयत्न करना श्रावश्यक है। इन परस सामग्रीका संकलन होने पर नया प्रकाश पड़नेके - - - -- --- १ देखो, धवला प्रथमखण्ड प्रस्तावना पृष्ठ ३५ २ देखो, अनेकान्त वर्ष किरण २
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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