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________________ ( ६२ ) साथ-साथ कई ऐतिहासिक गुत्थियों भी सुलझनेकी श्राशा 1 इसमें तो कोई सन्देह नहीं है कि प्राचार्य वीरसेनने धवला टीकाको राष्ट्रकूट राजा जगत् गदेव ( गोविन्द तृतीय ) के राज्यकालमें प्रारम्भ करके उनके उत्तराधिकारी राजा बोडणराय ( अमोघवर्ष ) के राज्यकालमें समाप्त किया था । अमोघवर्ष गोविन्द तृतीयके पुत्र थे और जो नृपतुरंग, पृथिवी - वल्लभ, लक्ष्मीवल्लभ, वीरनारायण महाराजाधिराज और परम भट्टारक जैसी अनेक उपाधियोंके स्वामी थे । इन्होंने ६३ वर्ष पर्यन्त राज्यशासन किया है । अमोघवर्ष राज्य करते हुए भी जैनगुरु जिनसेनाचार्य के समीप में बीच बीच में कुछ समय के लिये जाया करते थे और एकान्तवास द्वारा श्रम साधना की ओर अग्रसर होनेका प्रयत्न करते थे । फलस्वरूप उन्होंने विवेकपूर्ण राज्यका परित्याग कर 'रत्नमाला नामकी पुस्तक बनाई है । उनके जैन संग्रमी जीवनका दिग्दर्शन उन्हींके राज्य में रचे जाने वाले महावीराचार्य 'गणितसारसंग्रहके प्रारम्भिक पद्योंमें पाया जाता है । कुछ भी हो, वीरसेनाचार्य विक्रमकी स्वीं शताब्दीके बहुश्रुत विद्वान थे। उनके अनेक शिष्य थे जिनमें जिनसेनाचार्यको प्रमुख स्थान प्राप्त था जिनसेन विशाल बुद्धि धारक, कवि और विद्वान् थे । इसी श्राचार्य गुणभद्रने लिखा है कि - जिस प्रकार हिमाचलसे गंगाका, सकलज्ञसे ( सर्वज्ञसे ) दिoreafter और उदयाचलसे भास्कर ( सूर्य ) का उदय होता है उसी प्रकार वीरसेनसे जिनसेन उदयको प्राप्त हुए हैं । जिनसेन वीरसेनके वास्तविक उत्तराधिकारी थे। जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने अपना परिचय बड़े ही सुन्दर ढंग से दिया है और लिखा है कि 'वे श्रविद्धकर्ण थे - कर्णवेध संस्कार होने से पूर्व ही दीक्षित हो गए थे और बादमें उनका कर्णवेध संस्कार ज्ञानशलाकास हुआ था । वे बालब्रह्मचारी थे और १ श्राचार्य वीरसेनके शिष्योंमें सम्भवतः जिनसेन विनयसेनके सिवाय पद्मसेन और देवसेन भी रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं, पर ऐसा निश्चित उल्लेख मेरे देखनेमें नहीं श्राया |
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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