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________________ ६४ ] ( जैनधर्म-मीमांसा मैंने धर्मरक्षा के लिये यह झूठ बोला है तो उसका यह समझना भारी भ्रम है, क्योंकि ऐसा करके वह धर्म के स्वरूप पर वास्तविक विचार करने की सामग्री छीनता है। कहने का मतलब यह है कि असंयम से संयम में ले जाने के लिये या संयम में स्थिर रखने के लिये, दूसरे के नैतिक अधिकारों पर आक्रमण किये बिना निस्वार्थ भाव से झूठ बोलना क्षन्तव्य है । अन्यथा धर्म के नाम पर भी वह पूरी बेईमानी है। ३- अपना कोई रहस्य छुपाना न्यायसंगत हो तो उसे छुपाने के लिये झूठ बोलना अनुचित नहीं है। पहिले तो यथाशक्ति मौन रक्खे । यदि कुछ बोलना ही आवश्यक हो तो यह कह दे कि 'मैं नहीं कहना चाहता। यदि इतना स्पष्ट उत्तर देने की परिस्थिति न हो तो कहदे कि 'मुझे नहीं मालूम' । परन्तु कुछ कहनेसे ही अगर रहस्यभंग होने की सम्भावना हो तो झूठ बोल दे । जैसे बहुत दिन पहिले एकबार मुझसे एक पण्डितजीने पूछा कि-'आप सर्वज्ञ मानते हैं कि नहीं ? मैंने हंसकर कहा कि इस विषय में कुछ न पूछिये । उनने कहा--सब समझ गया अब पूछने की ज़रूरत नहीं है । मुझे अपने मनोभाव छिपाने की उस समय भी ज़रूरत नहीं थी इसलिये बात प्रगट होनेपर भी चिन्ता न हुई परन्तु जीवनमें ऐसे अवसर आते हैं कि झिझक के साथ उत्तर देनेसे ही असली बात प्रगट हो जाती है। जैसे समाचार-पत्रोंके संवाददाता चेहरे परसे राजनैतिक नेताओंके मनोभाव समझा करते हैं । अब अगर कोई राजनीतिकी किसी गुप्त मंत्रणामें शामिल हो और उससे शर्त कराली जाय कि
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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