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________________ मत्य ] उनको ऐतिहासिक सत्य समझा जाय तो इसका फल यह होगा कि अनाज के साथ धुन भी पिस जायगा । एक के पीछे सभी बातें असल्य मानी जायगी । इससे हम कल्याण के स्थान में अकल्याण करेंगे। अगर कल्याण अकल्याण पर दृष्टि न रखकर अहंकारवश अपने मत की-असत्य होने पर भी पुष्टि करते जायेंगे और सत्य के आगे सिर न झुकायेंगे तो पूर्ण असत्यवादी हो जायेंगे । एक बात और है कि इस नियम के अनुसार पर-कल्याण के लिये ही असत्य बोलना चाहिये, न कि अपने सम्प्रदाय या अपने मत-विचार की विजय वैजयन्ती उड़ाने के लिये । अपने सम्प्रदाय में जो अपनापन होता है वह अहंकार है, स्वार्थ है । उसके लिये असत्य बोलना वास्तव में असत्य बोलना है । जैसे-दिगम्बर श्वेताम्बर आपस में लड़ते हैं, इनमें से दिगम्बर या श्वेताम्बर अपने को प्राचीन सिद्ध करने के लिये या किसी तीर्थ को अपना सिद्ध करने के लिये मनमाना झूठ बोलकर अतथ्यसत्य की दुहाई देकर कहें कि 'हमने यह झूठ धर्म के लिये बोला है इसलिपे क्षन्तव्य है' तो यह बहाना ठीक नहीं । इस प्रकार झूठ बोलनेवाला उतना ही झूठा और बेईमान है जितना कि दुनियादारी में झूठ बोलनेवाला हो सकता है, क्योंकि ऐसा करना असंयम से संयम में लेजाना नहीं है किन्तु दूसरे के नैतिक अधिकारों का हड़पना है । इसी प्रकार एक आदमी व्यभिचारजात या दस्सा है और मुनि बन गया है परन्तु कहता फिरता है कि व्यभिचारजात या दस्सा को मुनि बनने का अधिकार नहीं है, जब उससे कोई पूछता है, तुम भी ऐसे हो तो कहता है कि मैं ऐसा नहीं हूँ', इस प्रकार झूठ बोलकर वह यह सोचे कि
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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