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________________ सत्य ] [६५ उसके द्वारा यह मंत्राणा प्रगट न की जायगी तो उसे छुपाने के लिये अगर उसे झूठ बोलना पड़े तो अनुचित नहीं है। परन्तु इस बातका खयाल रहे कि रहस्य छुपाना न्यायसंगत हो । न्यायसंगतता न होनेसे वह पूर्ण असत्यकी कक्षामें आ जायगा । एक विद्यार्थी आकर पछता है कि क्या आपने अमुक प्रश्न निकाला है ! मैं जानता हूँ कि निकाला है परन्तु अगर उत्तर देनेमें ज़रा भी शिक्षकता हूँ तो विद्यार्थी समझ जाता है, इस तरह परीक्षाका उद्देश ही मारा जाता है तथा में भी विश्वासघाती परीक्षक ठहरता हूँ। इसलिये उस समय दृढ़ताके साथ झूठ बोलना मेरा कर्तव्य होजाता है क्योंकि इस जगह रहस्य छुपाना न्यायसंगत है। इसी प्रकार एक आदमीने कोई आविष्कार किया है जिससे वह आजीविका करेगा, परन्तु पूछने पर अगर वह अपना रहस्य प्रगट करदे तो उसकी न्यायसंगत आजीविका ही मारी जाय, इसलिये उसे अपना रहस्य छुपाने का अधिकार है, भले ही उसे इसके लिये मिथ्या बोलना पड़े। प्रश्न- स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार झूठ बोलनका भी विधान क्यों किया जाता है ? वह चुप रहे, हूँ हूँ करके रहजाय या और किसी तरहसे टालटूल करदे तो ठीक है । असत्य भाषण से तो बचना ही चाहिये। उचर-- स्पष्ट बोलने में और अस्पष्ट बोलने में थोड़ा अन्तर अवश्य है, फिर भी असत्यभाषण दोनों हैं । क्योंकि जो मनुष्य हूँ हूँ करके टाल देता है उसका भी अभिप्राय तो यही है कि पूछने वालेसे असली बात छुपी रहे । इसलिये वह जो कुछ बोला है,
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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