SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ ] [ जैनधर्म-मीमांसा प्रमाद भी बढ़ता है । इसलिये अहिंसा के नाम पर यह निरर्थक यत्नाचार है। यही बात स्नान न करने के विषय में भी है। शरीर में पसीना तो आया ही करता है जो जीवयोनि है । अगर उसे साफ़ न किया जाय तो मलिनता आदि बढ़ने से जीव अधिक पैदा होने लगते हैं, दुर्गंध भी बढ़ती है, प्रमाद भी बढ़ता है । उचित साधन न मिलें और स्नान न किया जाय तो कोई हानि नहीं, परन्तु अस्नान को व्रत बनाने की जरूरत नहीं है । जिन दिनों मुनि समाज में नहीं रहते थे, प्रतिदिन भोजन भी नहीं करते थे, जंगल में रहने से स्नान वगैरह के पवित्र साधन नहीं मिलते थे, उस समय ये व्रत बनाये गये । इसके अतिरिक्त यह भी सम्भव है कि स्नान आदि क्रियाओं को हो परमधर्म माननेवाले और इसके न करने में महान अधर्म माननेवाले लोगों के दुराग्रह का विरोध करने के लिये यह नियम बनाया गया हो, और पीछे कारणवश इसे भी ऐकान्तिक रूप देना पड़ा हो, या ऐकान्तिक रूप प्राप्त हो गया हो । अथवा यह भी सम्भव है कि स्वच्छता के नाम पर मुनियों में श्रृंगारप्रियता बढ़ने लगी हो और श्रृंगारप्रियता को रोकने के लिये तथा मुनियों को परिषहविजयी बनाने के लिये ये नियम बनाये गये हों । मतलब यह कि अहिंसा के लिये ये नियम निरुपयोगी हैं। दूसरी दृष्टि से उस समय इनके बनाने की आवश्यकता हुई होगी, परन्तु आज की परिस्थिति में ये निरर्थक हैं। 1. मुँहपत्ति के विषय में भी यही बात है । वह वायुकाय के
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy