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________________ अहिंसा ] [ ३५ है, वह निरर्थक है । वायुसेवन आदि स्वास्थ्यरक्षा तथा मन शान्ति के लिये उपयोगी होने से निरर्थक नहीं है | (ख) जितनी सार्थकता है उसके अनुकूल ही हिंसा होना चाहिये । जैसे-वायुसेवन में संकल्पी हिंसा नहीं होती, सूक्ष्म और अदृश्य जीवों की ही विशेषतः हिंसा होती है, तो यह लाभ के अनुकूल हिंसा है। परन्तु यदि कोई व्यायाम के नाम पर पशुओं का शिकार करे तो यह हिंसा लाभ के अनुसार नहीं है क्योंकि इसमें अपने ही समान पञ्चेन्द्रिय प्राणियों को जानसे हाथ धोना पड़ता है और इससे फल बहुत थोड़ा होता है। निरर्थकता का पूरा निर्णय करना कठिन है परन्तु अहिंसा के अन्य नियमों के अनुसार द्रव्य क्षेत्र काल भाव देखकर निरर्थकता का निर्णय करना चाहिये। ५-सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा रोकने के लिये कभी कभी ऐसे प्रयत्न किये जाते हैं जो असफल होने के साथ कष्टप्रद होते हैं; जैसे दाँतुन नहीं करना, स्नान नहीं करना, मुँहपत्ति बाँधना, कीड़ियों को शक्कर डालना, कसाइयों के हाथ से पैसा देकर पशु, पक्षी, मछली आदि छुड़वाना आदि । दांतुन नहीं करने से हिंसा नहीं रुकती । मुंह के साफ करने से याद दाँतों के कीड़े मरेंगे तो एकबार मरेंगे; किन्तु साफ न करने से उससे कईगुणे कीड़े वहां पैदा होंगे और थूक के साथ पेटकी भट्टी में चले जायेंगे। इसके अतिरिक्त गंदगी से मुँह में दुर्गंध आने लगती है, इससे अपने को कष्ट होता है और इससे भी अधिक उन्हें होता है जो अपने साथ बात करते हैं। इसके साथ गंदगी से
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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