SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंता ]. | ३७ / जीवों की रक्षा के लिये बाँधी जाती है, परन्तु निरर्थक है, क्योंकि मुँहपत्ति से मुँह की वायु रुककर सामने न जाकर नीचे जायगी, परन्तु वायु तो वहां पर भी है । इसलिये वहां भी जीव मरेंगे। इसके अतिरिक्त कपड़े में जो गर्मी पैदा हो जाती है, उससे पीछे भी जीव मरते रहते हैं। इसके अतिरिक्त थूक वगैरह से मुँहपत्ति कृमिपूर्ण हो सकती है। इस प्रकार उससे उतना लाभ नहीं है, जितनी हानि है । फिर भी हिंसा नहीं रुकती, नासिका की वायु से तथा शरीर के सम्पर्क से जीव - हिंसा होती ही रहती है । इसके लिये नासिकापत्ति नहीं लगाई जा सकती है । न सारा शरीर आवृत किया जा सकता है । कई लोग कौड़ियोंको शक्कर डालकर असंख्य कीड़ियोको एकत्रित करके हिंसा के साधन एकत्रित करते हैं । एकबार मैंने देखा कि सड़क के एक किनारे असंख्य चीटे मरे पड़े हैं। मैं समझ नहीं सका कि ऐसी स्वच्छ सड़क पर असंख्य चीटे मरने के लिये कहाँ से आ गये ? इस प्रकार की घटना जब मैंने मुझे और भी आश्चर्य हुआ । परन्तु, एक दिन मेरी नज़र एक पास के बार बार देखी तब बहुतसी शक्कर वृक्ष के नीचे पड़ गई, वहाँ किसी धर्मात्मा जीवने डाली थी । उसकी दयालुता का ही यह फल था कि असंख्य चीटे शक्कर के लोभ से वहाँ आते थे और राहगीरों के पैरों से कुचलकर मौत के मुँह में जाते थे। कीड़ों-मकोड़ों की दया इसमें नहीं है कि उन्हें मरने के लिये निमंत्रण दिया जाय, किन्तु इसमें है कि स्वच्छता रखकर उन्हें पैदा होने न दिया जाय । स्वच्छता न रखना कीड़ों की हिंसा करना है । कई लोग पैसा देकर कसाइयों से जीव छुड़ाते है । ऐसे
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy