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________________ ३४ ] [ जैनधर्म-मीमांसा का पालन होना चाहिये। प्रश्न--प्रकृति जैसे पशुबल के आधार पर चुनाव कराती है तथा इसी मार्ग से विकास होता है, धर्म में भी उसी नीति का अवलम्बन क्यों न किया जाय ? उत्तर- प्रकृति और धर्म के लक्ष्य में बहुत अंतर है । विकास सुखरूप ही नहीं होता, दुःखरूप भी होता है । प्रकृति की दृष्टि में सुख और दुःख में कोई अन्तर नहीं है । उसके लिये तो स्वर्ग भी विकास है, नरक भी विकास है । परन्तु धर्म का सम्बन्ध सुखसे है, वह स्वर्ग को उन्नति और नरक को अवनति कहता है। प्रकृतिकी कसौटी को अगर धर्म भी अपनाले तो धर्म की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती है। क्योंकि प्रकृति तो अपना काम अपने आप कर रही है, उसका भूलसुधार अगर धर्म नहीं करना चाहता तो उसकी ज़रूरत क्या है । विकास का अर्थ है बढ़ना; धर्म प्रकृति के बढ़ने को नहीं रोकता किन्तु प्रकृतिकी जो शक्ति नरक की तरफ बढ़ने में खर्च होती है उसे वह स्वर्गकी तरफ़ ले जाता है, सुखकी तरफ़ ले जाता है। इसलिये प्रकृति की और धर्म की कसौटी में थोड़ा फ़रक है। ४-अपने से हीन श्रेणी के प्राणी की हिंसा निरर्थक न होना चाहिये, इस वाक्य में निरर्थक शब्द जटिल है; क्योंकि कोई आदमी घूमने को भी निरर्थक कहता है, और दूसरा मौजशौक के लिये पशुवध या नरवध को भी सार्थक समझ सकता है । इसलिये यहाँ कुछ सूचनाएँ लिख दी जाती हैं : (क) जो हिंसा स्वास्थ्यरक्षा या ज्ञानोन्नति में सहायक नहीं
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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