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________________ २६ } [ जैनधर्म-मीमांसा ८--अत्याचारी के अनिवार्य क्ध करने में भी हिंसाका पाप नहीं है । शर्त यह है कि वह अत्याचार को रोकने के लिये किया जाय । ९.-यदि जीवित रहने की अपेक्षा मरने में कल्याण की मात्रा अधिक हो तो यथायोग्य साम्यभाव से जीवन का त्याग करना या कराना हिंसा नहीं है। ___ उदाहरणपूर्वक विवेचन किये बिना इनका स्पष्टीकरण न होगा इसलिये इन नौ सूत्रोंका यहाँ क्रम से भाप्य किया जाता है । १--श्वासोच्छ्वास, पलक बन्द करना, निद्रा में हाथ-पाँव आदि का चल जाना, अंग अकड़ न जाय इसलिये अंग संचालन आदि में होनेवाली हिंसा, हिंसा नहीं है । प्रश्न-यदि जीवित रहने में हिंसा अनिवार्य है तो प्राण त्याग कर देना क्या बुरा हैं ? एक की मौत होने पर अनन्त जीवों की रक्षा होगी । जिससे सुखवृद्धि हो, वही तो धर्म है । एक के मरने पर अनन्त जीवों की रक्षा होन से संसार में एक का दुःख और अनन्त का सुख बढ़ता है, इसलिये यही धर्म कहलाया । उत्तर---अगर सब जीवों का सुख बराबर होता तब यह बात उचित कही जा सकती थी। परन्तु जिसके आत्मगुण (चैतन्य) जितने विकसित होते हैं उसमें सुख की शक्ति भी उतनी अधिक होती है । पृथ्वी आदि की अपेक्षा वनस्पति में चैतन्य की मात्रा असंख्यगुणी है । उसमें भी साधारण वनस्पति की अपेक्षा प्रत्येक वनस्पति में असंख्यगुणी है । उससे असंख्यगुणी जोंक आदि में है। उससे असंख्यगुणी तेइन्द्रिय चिउँटी आदि में । उससे असंख्य
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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