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________________ नित्य-कृत्य [३२९ रहती है और उसके आश्रित रहकर उसके सदस्य आत्मोन्नति तथा परोन्नति करते रहते हैं। ऐसे कृत्य संस्था के साथ ही पैदा नहीं हो जाते, किन्तु धीरे धीरे पैदा होते हैं, और कभी कभी तो वे पूर्ण रूप में प्रचलित भी नहीं हो पाते । जैनशास्त्रों में, खासकर दिगम्बर जैनशास्त्रों में, इस प्रकार के दैनिक कृत्यों का वर्णन मिलता है। १ देवपूजा, २ गुरूपास्ति, ३ खाध्याय, ४ संयम, ५ तप, ६ दान । इनमें से स्वाध्याय, संयम, तप और दान-इन चार का वर्णन पहिले अच्छी तरह किया जा चुका है, इसलिये यहाँ इनके विवेचन की ज़रूरत नहीं है । रही देवपूजा और गुरूपास्ति; इनमें से भी गुरुपास्ति की आज जरूरत नहीं है, जिनमें वास्तव में गुरुत्व है उनको हर तरह सहायता पहुँचाना प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है; परन्तु यह तो पात्रदान में आ जाता है, इसलिये अलग उल्लेख करना अनावश्यक है । इससे अधिक गुरूपास्ति आवश्यक नहीं है। कम से कम वह नित्यकृत्य में नहीं रखी जा सकती। अब रा देवपूजा, सो देव कहीं मिलता तो है नहीं, भूत. काल के गुरु या महागुरु ही देव के रूप में माने जाने लगते हैं। महात्मा महावीर आदि महागुरु ही आज देव के रूप में माने जाते है, और देवपूजा के नाम पर उनकी मूर्तियों की पूजा की जाती है। हम ऐसे महागुरुओं को तथा जिन गुणों के कारण वे महागुरु बने-उन गुणों को देव के स्थान पर पूजें तो अनुचित नहीं है। परन्तु इसके विषय में तीन तरह के सुधारों की आवश्यकता है१-देवपूजा के वर्तमान रूप को बदल देना चाहिये । २-पूजा के
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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