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________________ 1 | जैनधर्म-मीमांसा ३३० ] विषय में अधिकार अनधिकार का जो प्रश्न है, उसके विषय में प्रतिबन्ध उठा लेना चाहिये । ३ - देवपूजा का अर्थ व्यापक करना चाहिये | इन तीनों का संक्षेप में स्पष्टीकरण इस प्रकार है । १ - देव पूजा का वर्तमान रूप विकृत है। अभिषेक, आँगी, पकान्न चढ़ाना आदि उसमें समय के प्रवाह के कारण मिल गये I हैं । जैन-धर्म में महावीर आदि की यद्यपि एक महात्मा या तीर्थंकर के रूप में ही मान्यता है, तथापि लोगों के हृदय में ऐश्वर्य की जो अमिट छाप है उसके कारण वे अगर महात्माओं की उपसना भी करते हैं तो वे उन्हें ईश्वर बनाकर छोड़ते हैं । उनके बाह्य वैभव और अतिशयों की कल्पना करके वे उन्हें मनुष्य की श्रेणी से निकालकर बाहर कर देते हैं। उनके जीवन की अद्भुत कहानियाँ गढ़ डालते हैं, और फिर उनके रण में नाना तरह की क्रियाएँ रचते हैं । मूर्तियों के अभिषेक आदि ऐसी ही अवैज्ञानिक सारहीन भक्तिकल्प्य घटनाओं के स्मारक है । उनकी आज ज़रूरत नहीं है । इसके अतिरिक्त मूर्तियों का श्रृङ्गार पूजा का अंग न बनाना चाहिये । रंगमंच के ऊपर नेपथ्य का काम करना जैसे कलाहीन और भद्दा है, उसी प्रकार पूजा में मूर्तियों का सजाना मी अनुचित है । जो कुछ करना हो पूजा के पहिले ही एकान्त में कर लेना चाहिये। साथ ही उसके अनुरूप ही सजावट करना चाहिये । महात्मा महावीर, महात्मा बुद्ध आदि की मूर्तियों पर मुकुट आदि लगाना — उनके श्रमण-जविन की हँसी करना है। हाँ महात्मा राम, महात्मा कृष्ण आदि की मूर्तियों पर यह सजावट की
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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