SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८] (जैनधर्म-मीमांसा तथा साधारण वनस्पति का विचार किये बिना हमें प्रस-हिंसा का ही ख़याल रखना चाहिये । हाँ, अनावश्यक स्थावर-बध न करना 'चाहिये। साधारण वनस्पति का त्याग एक दुसरी दृष्टि से उचित है, परन्तु वह सब साधारण वनस्पतियों का नहीं । प्रत्येक वनस्पति भी एक समय साधारण अवस्था में से गुजरती है, जब कि उसमें नस गुठली आदि नहीं होती। जो वनस्पति अन्त तक साधारण रहनेवाली है उसके भक्षण करने में तो कोई दोष नहीं है, जैसे-आलू आदि । परन्तु जो वनस्पति साधारण अवस्था को पार करके प्रत्येक वनस्पति बनेगी उसका उपयोग साधारण अवस्था में न करना चाहिये, यह त्याग अहिंसा की दृष्टि से नहीं है किन्तु अपरिग्रह की दृष्टि से है । किसी फल को उसकी साधारण अवस्था में नष्ट कर देने से उससे उतना लाभ नहीं उठाया जा सकता जितना कि उसकी प्रत्येक अवस्था में उठाया जा सकता है । आम का एक फल कोई उस अवस्था में खा जाय जब उसमें गुठली, दल, और त्वचा का भेद ही नहीं था तो समाज की सम्पत्ति में से एक फल को बर्बाद कर देना है । साधारण वनस्पति के त्याग की उपयोगिता का यह छोटा-सा प्रमाण है, इसे नियम का रूप नहीं दिया जा सकता। हाँ, इसे भावना कह सकते हैं। मनुष्य को इस प्रकार की भावना रखना चाहिये तथा किसी अच्छे कार्य में बाधा डाले बिना यथाशकि ऐसी साधारण वनस्पति की हिंसा से बचे रहना चाहिये । एषणा-समिति के विषय में बहुत बातें हैं, परन्तु इतने विवेचन से उसका मर्म समझ में आ जाता है । वर्तमान में जो एषणा
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy