SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनिसंस्था के नियम [१९७ विषय में कुछ बाह्याडम्बर फैला हुआ है । जैनाचार्यों ने प्राणि-शास्त्र का अध्ययन करके यह निर्णय किया था कि कुछ वनस्पतियाँ ऐसी हैं जिनमें अनन्त जीव रहते हैं । कन्द-मूल आदि इसी श्रेणी में समझे जाते हैं, तथा वनस्पतियों की कुछ अवस्थाएँ ऐसी हैं जब उनमें अनन्त जीव होते हैं । बनस्पति में जब नसें नहीं मालूम होती उनकी स्वचा बहुत मोटी होती है या दल से मिली रहती है, तब भी वे अनन्त जीव-वाली होती हैं । जैनाचार्यों की यह खोज अवश्य ही उनकी अध्ययनशीलता का परिचय देती है । परन्तु इसी आधार पर जो भक्ष्याभक्ष्य का विचार चल पड़ा है, वह ठीक नहीं है। किसी वनस्पति में अनन्त जीव मानने का यही अर्थ है कि उसमें इतने अधिक जीव हैं जिनको हम जान नहीं सकते । यह बहुत सम्भव है कि उनमें बहुत जीव हों, परन्तु . सिर्फ इसीलिये उनको अभक्ष्य कहना अनुचित है । क्योंकि एक शरीर में अनन्त या अत्यधिक जीव बतलाने का अर्थ यही है कि उन जीवों का विकास बहुत थोड़ा हुआ है, उनमें चैतन्य की मात्रा प्रत्येक वनस्पवि की अपेक्षा अनन्तवें भाग है । ऐसी हालत में इन अविकसित साधारण प्राणियों का भक्षण करना प्रत्येक वनस्पति के भक्षण की अपेक्षा कुछ अधिक उचित है। जिस प्रकार अनेक एकेन्द्रिय जीवों को मारने की अपेक्षा एक त्रस की हत्या में अधिक पाप है, इसी तरह अनेक साधारण वनस्पति को मारने की अपेक्षा एक प्रत्येक वनस्पति के मारने में अधिक पाप है । परन्तु प्रत्येक वनस्पति को भक्षण करने के बिना हमारा काम नहीं चल सकता तथा एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा अनिवार्य है, इसलिये प्रत्येक
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy