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________________ १९०] .. [जैनधर्म मीमांसा कि अनेक गृहस्थों के यहाँ से थोड़ा-थोड़ा भोजन माँगकर भोजन किया जाय । आजकल पहिली रीति दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित है और दूसरी रीति श्वेताम्बर सम्प्रदाय में । हाँ, मुनि होने के पहिले क्षुल्लक अवस्था में दिगम्बर लोग भी अनेक घर से भिक्षा माँगना उचित समझते हैं । जहाँ तक उद्दिष्ट-त्याग का सम्बन्ध है वहाँ तक यह दूसरी विधि ही अधिक उपयुक्त मालूम होती है; क्योंकि किसी आदमी को अगर भर-पेट भोजन कराना हो तो उसके उद्देश से कुछ न कुछ बनाना पड़ेगा, अथवा आने लिये बनाया गया मेजन उसे देकर अपने लिये दुसरा भोजन बनाना पड़ेगा। __उद्दिष्टाहार-त्याग के जो नियम हैं वे बहुत सूक्ष्म हैं । उनसे मालूम होता है कि महात्मा महावीर ने इस बात का पूरा खयाल रक्खा था कि साधु लोग समाज को कष्ट न दें। भोजन के विषय में बहुत-सी बातें जानने योग्य हैं । जैसे जिस भोजन के तैयार करने में हिंसा हुई हो, जो जैनमुनियों के लिये, दूसरे साधुओं के लिये, गरीबों के लिये यो और किसी के लिये बनाया गया हो, साधु को देखकर बनतो हुई सामग्री में कुछ बढ़ा लिया गया हो, वा तुरन्त खरीद कर गया गया हो, या किसी दूसरी चीज़ से बदल लिया गया हो, भा उधार लिया गया हो, जिसे निकालने के लिये अटारी [भट्टालिका] भादि पर चढ़ना पड़ा हो, या बालक को दुध पिलाना बन्द करना पड़ा हो, जो भोजन किसी के दबाव से दिया गया हो, अपने
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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