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________________ मुनिसंस्था के नियम ] [१८९ मनोविनोद के लिये अगर ऐसा हास्य किया जाय जिससे पर-निंदा न होती हो, अहिंसा और सत्य का भंग न होता हो तो उसके त्याग की आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता होने पर कोई मौन धारण करे, किसी से बातचीत न करे या कम करे तो उसको कोई बुरा नहीं कहता, परन्तु यह आवश्यक नहीं है । जितना आवश्यक है वह सत्यव्रत ने आ चुका है, इसलिये भाषा समिति का भी अलग उल्लेख नहीं किया जा सकता । तोसरी एषणा-समिति है। इसमें निर्दोष आहारादि का विधान है । इस विषय में इतने अधिक सूक्ष्म* नियम हैं कि उन सबका वर्णन करने से बहुत विस्तार हो जायगा । पुरोन समय की साधु-संस्था जैसी थी उसके लिये वे नियम उपयोगी थे, और उसमें इस बात का पूरा ख़याल रखा गया था कि साधु-संस्था के कारण गृहस्थों को कोई कष्ट न हो, तथा साधुओं की किसी क्रिया से अप्रत्यक्ष-रूप में भी हिंसा न हो, दूसरे भिक्षुकों को भी कोई बाधा न पहुँचे, इसलिये मुनि के भोजन में उद्दिष्टाहार-त्याग का मुख्य स्थान है । जो भोजन अपने निमित्त से बनाया गया हो वह भोजन साधु के लिये अप्राय है । इसका मुख्य उद्देश यही था कि साधु के लिये गृहस्थों को कोई कष्ट न हो, साधु के भोजन की गृहस्थों को कोई चिन्ता न करना पड़े और न विशिष्ट भोजन तैयार करना पड़े । साधु अकस्मात् किसी गली से निकल जाता था और जो भी उसे बुलाता उसके यहाँ शुद्धाहार मिलने पर भोजन कर लेता; परन्तु एक घर में पूरा भोजन करने से उस गृहस्थ को कुछ तकलीफ़ होने की सम्भावना थी, इसलिये दुसरी रीति यह बी * देखो नूलाचार पिंड्युद्धि अधिकार ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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