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________________ १२८] [जैन-धर्म-मीमांसा वेश्या प्रथा कुछ समर्थ हो सकती है । इधर त्रियों के ऊपर भी समाज का अत्याचार कम नहीं है । वैधव्य प्राप्त करने पर उन्हें ब्रह्मचर्य के लिये विवश किया जाता है, जिसको वे पालन नहीं कर सकती, इससे न्यभिचार बढ़ता है । बाद में गर्म रहजाने पर वह बिलकुल बहिष्कृत कर दीजाती हैं । अन्त में वह गिरते गिरते पतन की सीमा पर पहुँच कर वेश्या बन जाती है । इस प्रकार समाज की अव्यवस्था और अत्याचारशीलताने एक तरह वेश्याओं के निर्माण का कारखाना खोल रक्खा है और दूसरी तरफ युवकों को अविवाहित रहने के लिये विवश कर दिया है। ऐसी अवस्था में वेश्याओं का होना अनिवार्य है। वेश्याएँ कुछ इसलिये अपना धन्धा नहीं करतीं कि उन्हें काम सुख लूटना है किन्तु इसलिये करती है कि उन्हें पेट की ज्वाला शान्त करना है। उन बेचारियों में भूखों मरने का साहस नहीं है । इसलिये उनका कार्य संकल्पी मैथुन अर्थात् ब्यभिचार न कहलाकर उद्योगी मैथुन कहलाता है। इस उद्योगी मैथुन में सांकल्पिकता का प्रवेश न होना चाहिये अर्थात इसमें पर-स्त्री-सेवन और पर पुरुष सेवन का पाप न आना चाहिये। जो पुरुष विवाहित है उसके लिये वेश्या भी (स्वस्त्री से भिन्न होने से ) परस्त्री है, इसलिये वेश्यागमन करके वह व्यभिचार करता है, और विवाहित होने से वेश्या के लिये भी यह पर-पुरुष (पर दूसरी स्त्री का पुरुष ) है, इसलिये उससे सम्बन्ध करके वह भी व्यभिचारिणी होती है। जिनको अनिवार्य कारणवश अविवाहित जीवन व्यतीन करना पड़ता है, सिर्फ उन्हीं के लिये
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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