SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९२ (जैन-धर्म-म मामा था इसलिये अपनेही आप मेरे विचार बदले हैं, तुममें मेरे विचारों के बदलनेकी क्या ताकत है ! इस प्रकार उपकार न मानना उसके यशकी चोरी है। १३-स्वार्थवश, द्वेषक्श एकका यश दुसरेको देना भी चोरी है। जैसे कोई ब्राह्मण जाति का पुजारी कहे कि धर्म का प्रचार नो ब्राह्मण ही कर सकते हैं, क्षय और वैश्य ब्राह्मणों की बराबरी कदापि नहीं कर सकते; महावीर का तो नाम है, काम तो उनके ब्राह्मण शिष्यों का है। यह भी जातिमद के कारण की जानेवाली यश की चोरी है। इसी प्रकार किसी आदमी मे देष होगया हो तो उसकी सफलताओं का श्रेय दूसरों को देना, उसकी मफलता की चर्चा में उसका नाम भी न लेना या दबेछुपे शब्दों में गाण बनाकर लेना आदि भी चोरी है, क्योंकि इसमें विपक्षी का यश चुराकर वह बोरी का माल अपने पक्षबालों को दिया जाता है । ११-दुनियाँ को बताना कि हमने इम चीन का त्याग किया है परन्तु छुपकर, या इस ढंग से जिससे लोगोंको यह पता नगे कि हम इसका सेवन करते हैं, सेवन करना चोरी है । रात्रिभोजन स्यागी समाज से छुपाकर-उसमाज से छुपाकर कि जिसके सामने उसे प्रगट करना है कि मैं अमुक का त्यागी है . रात्रिभोजन करना चोरी है । इसी प्रकार अन्य सब स्याका इस प्रकार यश की चोरी मी चोरी है। .
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy