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________________ अचौर्य ] [ ९३ १५-दूसरे के नैतिक अधिकारोंकी भी चोरी होती है स्टेशन पर टिकिट खरीदने के लिये या और किसी जगहपर बहुतसे आदमी एकत्रित हैं । उनको क्रमश: टिकिट आदि लेना चाहिये परन्तु क्रम भंग करके अपने से पहिले वालोंकी पर्वाह न करके शक्तिसे, चञ्चलतासे, धृष्टता से पहिले टिकिट लेलेनाभी चोरी है । रेल में हम चार आदमियों की जगह रोके हुए हैं। जगह यदि खाकी पड़ी हो तो उसका उपयोग भलेही किया जाय परन्तु जब दूसरोंको बैठने को भी जगह न मिले, फिर भी अधिक जगहको रोके रहना चोरी है। जगह होने परभी दूसरे यात्रियों को न आने देना चोरी है । टिकटके दृष्टान्तमें हम दूसरेके अधिकार - समय - आराम आदिकी चोरी करते हैं। रेलमे बैठने की जगह दृष्टान्तमें इन सब की चोरी स्पष्ट है 1 इसप्रकार हम जीवन में पद पद पर चोरी करते हैं । इनमें से बहुतसी चोरियाँ केवल हमारे पापकी ही सूचना नहीं देती किन्तु वे हमारी असभ्यताकी भी सूचना देती हैं। ये क्रियात्मक चोरियाँ जब हमारे मन में भी स्थान जमा लेती हैं तब भी वे चोरी ही कहलाती हैं इन उदाहरणोंसे चोरीका स्वरूप समझ में आ जाता है । चोरियो की सूची बनाना तो असम्भवही है परन्तु उसका श्रेणीविभाग करना भी कम कठिन नहीं है । जब अहिंसा के अपवाद थे, सत्य के अपवाद थे. तब इस व्रत के अपवाद न हो यह कैसे हो सकता है ! बाहिरी अहिंसा और बाहिरी सत्य कभी कभी कल्याण के विरोधी होजाते है, इसलिये
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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