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________________ इस्तज्ञान के मेद [ ३३१ चर्चाओंका वर्णन है जो उस समय परस्परमें या दूसरे मतवालोंके साथ हुई हैं। इन चर्चाओं का विषय एक नहीं था, परन्तु जब जैसा अवसर आता था उसी विषय पर चर्चा होती थी। व्याख्याप्रज्ञप्तिमें तो इन्द्रभूतिने या महात्मा महावीरके शिष्योंने जो प्रश्न उन से पूछे उनके उत्तर हैं, परन्तु प्रश्न व्याकरणमें तो महावीरशिष्योंकी पारस्परिक चर्चाएँ और अन्य तीर्थिकों के साथकी चर्चाएँ हैं ! प्रश्नव्याकरणांग शास्त्रार्थों की रिपोर्टीका संग्रह है इसलिये अकलंकदेव कहते हैं कि इसमें लौकिक और वैदिक शब्दोंका अर्थ किया जाता है । शास्त्रार्थका अर्थ है, जिसमें शास्त्रका अर्थ किया जाता हो। अकलंकदेवकी यह परिभाषा प्रश्नव्याकरणके स्वरूपको बहुत कुछ स्पष्ट करती है। ऊपर जो भिन्न भिन्न आचार्योंने प्रश्नव्याकरण के जुदे जुदे विषय बतलाये हैं, वे सब वादविवादमें सम्भव हैं इसलिये उन सबका विवरण प्रश्नव्याकरणांगमें आना उचित है। शास्वार्थका लक्ष्य यद्यपि तत्त्वनिर्णय ही है परन्तु अज्ञातकालसे इसमें जयविजयकी भावनाका भी विष मिला हुआ है। इसका एक कारण यह है कि जनसमाजकी निर्णय करनेकी कसौटीमें ही विकार आगया है। उदाहरणार्थ-सीता अग्निमें कूद पड़ी और नहीं जली, इसलिये लोगोंने उन्हें सती मानलिया । परन्तु यह न सोचा कि सतीत्वका और अग्निमें न जलनेका क्या सम्बन्ध है ? दोदो चार चार वर्षकी बालिकाएँ जिनमें कि असतीत्वकी सम्भावना भी नहीं हो सकती, अगर अभिमें डालनेसे न जलती होती तो समझा
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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