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________________ ३३० ] पाँचवाँ अध्याय मालम । फिर भी इस अंगके ठीक ठीक रूपको जानने की सामग्री अवश्य है । उपर्युक्त विवेचनमें निम्नलिखित प्रश्न विचारणीय हैं -जैन धर्म का अंग-साहित्य वास्तव में धर्मशास्त्र है इसलिये उसमें सामुद्रिक या फलित ज्योतिष की मुख्यता लेकर विषय का विवेचन कैसे हो सकता है ? गौणरूपमें भले ही ये विषय आवें परन्तु मुख्यरूपमें ये विषय कदापि नहीं आ सकते, इसलिये इसका मुख्य विषय बतलाना चाहिये। २-व्याख्याप्रज्ञप्ति में भी इसी विषय के प्रश्नोत्तर हैं, तब व्याख्याप्रज्ञप्ति से इस अंग में क्या विशेषता रह जाती है ? इन सब बातोपर विचार करनेसे यह बात मालूम होती है कि उपर्युक्त आचार्योंके मत इस अंगके एक एक रूपको बतलाते हैं, उसके मुख्यरूपको प्रकट नहीं करते हैं इसलिये यह गड़बड़ी है। गड़बड़ी का एक कारण यह भी है कि जैनधर्मके अंगसाहित्यकी रचना इस ढंगसे हुई है कि उसका मौलिकरूप प्रारम्भमें ही नष्ट होगया है। जैनसाहित्यमें ऐसे वर्णन नहीं मिलते या नाममात्रको मिलते हैं कि कौनसी बात किसके द्वारा किस अवसरपर किस बात को लक्ष्यमें लेकर कही गई है। जैनसाहित्यमें नियमों और सिद्धान्तोंका संग्रह तो है परन्तु उनका इतिहास नहीं है, जैसाकि बौद्ध साहित्यमें पाया जाता है । कुछ तो मुलमें ही यह इतिहास नहीं रक्खा गया और कुछ शीघ्र नष्ट हो गया । मेरा कहना यह है कि प्रश्नव्याकरण में महात्मा महावीर के और उनके शिष्योंके उन शास्त्रार्थोंका, वादविवादोंका तथा वीतराग
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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