SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रचलित मान्यताएँ [ re? होनेवाला दर्शन अवधि-दर्शन है । केवलज्ञान के साथ होनेवाला दर्शन केक्लदर्शन है: 1 होता है (ठ) मतिज्ञान के पहिले चक्षु अथक अचक्षु दर्शन 1 (ड) श्रुत और मनःपर्यय के पहिले दर्शन नहीं होता; ये ज्ञान, ज्ञानपूर्वक होते हैं। [ ८ ] विभंगावधि के पहिले भी अवधिदर्शन नहीं होता है (१) मिध्यादृष्टियों को जो अवधिज्ञान होता है उसे विभावधि कहते हैं । [ण ] इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं और वह मतिज्ञान का भेद माना जाता है । अवधि आदि पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं । [ त ] प्रत्येक ज्ञान चाहे वह मिथ्या भी हो -- स्वपर प्रकाशक अर्थात् अपने और पर को जानने वाला होता है । (२) [थ ] प्रमाण के एक अंश को नय कहते हैं । यह द्रव्य ( सामान्य ) अथवा पर्याय ( विशेष ) दृष्टि से वस्तु को जानता है ( द ) नय के सात भेद हैं । और विस्तार से असंख्य भेद हैं । (ध) मिथ्या दृष्टियों को पूर्ण इहतज्ञान प्राप्त नहीं होता । १- अवधिदर्शनं तु सम्यग्दृष्टेरेव न मियादृष्टः । तत्त्वार्थ सि. टी. २-९ . २- भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिह्नवः । बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते । आतमीमांसा । ज्ञानस्य प्रामाण्याप्रामाण्ये अपि बहिरर्थापेक्षयेव न स्वरूपापेक्षा eatrescent |
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy