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________________ १९२ ] पाँचवाँ अध्याय ( दिवाकरर्जा का मतभेद ) ये सब मान्यताएँ बहुप्रचलित और निर्विवाद मानी जाती हैं। इनके विषय में विद्वानों का भी यही विचार है कि ये म. महावीर के समय से चली आरही हैं । परन्तु विचार करने से मालूम होगा कि इन में बहुत गड़बड़ाध्याय हुआ है। इतना ही नहीं, किन्तु बहुत से प्राचीन आचार्यों ने इन मान्यताओं के विरुद्ध भी लिखा है। मालूम होता है कि उनका विचार यही था कि "जो बुद्धिगम्य हो और सच्चा सिद्ध हो वही जैनधर्म है । परम्पराके छिन्नभिन्न तथा विकृत होजानेसे महात्मा महावीरके शासनमें भी विकार आगया है । तर्क ही उस विकार को दूर कर सकता है।" श्री सिद्धसेन दिवाकरने केवलज्ञान और केवलदर्शनके विषयका जो नया मत निकाला था उसकी चर्चा सर्वज्ञत्वके प्रकरणमें होचुकी है । परन्तु उनने दर्शन और ज्ञानवा स्वरूप भी बदला है और चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शनके लक्षण भी बदले हैं । इस प्रकार बहुत परिवर्तन कर दिया है। उनका वक्तव्य यह है । सामान्य ग्रहण दर्शन है, और विशेष ग्रहण ज्ञान है । इस प्रकार दोनों द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का अर्थ ज्ञान (१) है। ये दोनों उपयोग एक दूसरेको गौण करके जानते हैं । अर्थात् दर्शनमें गौण रूपसे ज्ञान रहता है और ज्ञानमें गौण रूपसे दर्शन रहता है । इसलिये दोनों प्रमाण हैं । वस्तु सामान्य-विशेषात्मक १- जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं विससियं गाणं । दोहाव णयाण एसो पाडेक्कं अस्थपजाओ। सम्मतितर्क २-५ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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