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________________ १९०] पाँचवाँ अध्याय अवधिज्ञान है । और जो इन्द्रियमन की सहायता के बिना दूसरे के मन की बात स्पष्ट जाने वह मनःपर्षय ज्ञान है। ये तीनों ज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष है। [घ] अवधिज्ञान का विषय तीन लोक तक है और मनःपर्यय का सिर्फ नर-लोक । [ङ ] मनःपर्यय ज्ञान सिर्फ मुनियों के ही हो सकता है । [च] इन्द्रिय और मन से जो ज्ञान होता है उस मतिज्ञान कहते हैं । उसके ३३६ भेद हैं तथा और भी भेद हैं । छ ] एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ का ज्ञान होता है उसे इरुत (१) कहते हैं। उसके दो भेद हैं अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट । [ज ] सब ज्ञानों के पहिले दर्शन होता है। [झ ] सामान्य सत्तामात्र के प्रतिभास को दर्शन कहते हैं । [अ] दर्शन प्रमाण नहीं माना जाता (२) [ट ] दर्शन के चार भेद हैं । चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल । चक्षु से होने वाला दर्शन चक्षुदर्शन है। बाकी इन्द्रियों से होने वाला दर्शन अचक्षुदर्शन (३) है। अवधिज्ञान के पहिले १- अस्थादो अन्धंतरमुवठभं तं भणति सुदणाणं । गोम्मटपार जावकरंड २- एतच्च (व्यवसायि) विशेषणं अक्षानरूपस्य व्यवहार राधोरेयतामनादधानस्य सनमात्रगोचरस्य स्वसमयप्रसिद्धस्य दर्शनस्य प्रामाण्यपराकरणार्थ । रत्नाकरस्वतारिका। ३- अचक्षु दर्शनं शेषेन्द्रियाविषयम् । तत्वार्थ सि. दी..२.१ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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