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________________ ६२ जैनधर्म-मीमांसा wrorani और वीर-धर्मका साहित्य भी ज्योंका त्यों उपलब्ध नहीं है। केशीगौतम-संवाद ही एक ऐसी घटना है जिससे इस विषयपर कुछ प्रकाश पड़ता है परन्तु वह भी इतना अविकृत नहीं है कि उससे सब बातोंका ठीक ठीक परिचय मिल सके। उससे सिर्फ म० पार्श्वनाथका अस्तित्व सिद्ध होता है और वीर-धर्मसे वह जुदा धर्म था जिसके अनुयायी विरोध करनेके बाद वीर-धर्ममें आगये थे, यह भी मालूम होता है । उत्तराध्ययन म० महावीरके कई सौ वर्ष पीछेकी रचना है और अपने समयकी छाप भी उसपर है । उसका केशी-गौतम संवाद एक सत्य-घटनाका उल्लेख करता है अवश्य, फिर भी उसका वह शुद्ध वर्णन नहीं करता । इसलिये उसकी आलोचना करते समय उसे अक्षरशः प्रमाण नहीं माना जा सकता । जिस प्रकार न्यायालयमें साक्षीका वक्तव्य पूर्ण प्रमाण नहीं माना जाता किन्तु उसकी परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार यहाँ भी हमें उस अध्ययनका परीक्षण करना पड़ेगा । साक्षीके मुँहसे जब कोई ऐसी बात निकलती है जो उसीके पक्षके विरुद्ध हो, तब उस बातपर विशेष ध्यान दिया जाता है और माना जाता है कि अपने ही पक्षके विरुद्ध बोलना सत्यको न छिपा सकनेका फल है। इसी प्रकार हमें भी यही विचार करना पड़ेगा। उत्तराध्ययनमें, और उसके केशी-गौतम-संवाद प्रकरणमें भी बहुतसी बातें ऐसी हैं जिनका ऐतिहासिक मूल्य कुछ नहीं है। जैसे चौबीस तीर्थंकरोंका उल्लेख होना, यक्ष किन्नर गंधर्वोका सभामें आना, अवधिज्ञान आदि । ये सब बातें तो उत्तराध्ययनके निर्माण कालके वातावरणपर प्रकाश डालती हैं । उत्तराध्ययनकार भी म० महावीरके व्यक्तित्वको पूर्ण और सर्वोत्कृष्ट मानते हैं, जैनधर्मको प्राचीन मानते हैं, म० महावीरको जैनधर्मका संस्थापक नहीं मानते किन्तु
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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