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________________ जैनधर्मकी स्थापना ~~rrrr.. नातपुत्त ' के नामसे प्रख्यात थे और उनके अनुयायी उनके अनुयायी कहलाते थे, आज कल सरीखा कोई खास नाम नहीं था। जिन, बुद्ध, अर्हत् , आदि नाम साधारण नाम थे जो कि किसी भी श्रमणसम्प्रदायके श्रेष्ठ महात्माके लिये लगाये जाते थे और निगण्ठ शब्द नग्न महात्माओंके लिये लगाया जाता था। इन शब्दोंका उपयोग महावीर, बुद्ध, गोशालक आदिके लिया हुआ है। निगंठ शब्दका उपयोग भी महावीर, गोशालक, पूर्ण काश्यप आदिके लिये होता था । मतलब यह कि ये शब्द साम्प्रदायिक नहीं थे किन्तु अमुक गुण या वेषको बतलानेवाले थे। इस लिये इन शब्दोंके मिल जानेसे यह समझना कि अमुक सम्प्रदाय उतना प्राचीन है भूल है । आर्य और ब्रह्म शब्द बहुत प्राचीन हैं परन्तु इसीलिये आर्यसमाज ब्राह्मसमाज आदि संस्थाएँ प्राचीन नहीं कही जा सकतीं। कोई भी धर्म अपने तीर्थकरसे पुराना नहीं होता । हाँ, उसमें आये हुए सैकड़ों आचारविचार तथा वेष आदि पुराने होते हैं । इस लिये जैनधर्मको म० महावीरके बराबर पुराना कहना चाहिये, इसके पहलेका नहीं। ___ म० पार्श्वनाथ अवश्य ही एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। उनका धर्म करीब दो-ढाईसौ वर्ष तक चला परन्तु उसमें शिथिलता आ जानेसे उसके अनुयायी जैनधर्ममें मिल गये । इस लिये पार्श्व-धर्म और वीर-धर्म दो धर्मके रूपमें एक साथ न रह सके । इसलिये बहुतसे ऐतिहासिक विद्वान् भी म० पार्श्वनाथके धर्मको भी जैनधर्म ही समझते हैं । परन्तु जब दोनों ही तीर्थकर थे तब दोनोंके धर्म एक नहीं हो सकते । हाँ, अन्य सम्प्रदायोंकी अपेक्षा उनमें कुछ अधिक समानता हो सकती है। . दुर्भाग्य यह है कि पार्श्व-धर्मका कोई साहित्य उपलब्ध नहीं होता
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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