SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૯૪ जैनधर्म-मीमांसा अपवित्रताओंको खींचनेका ठेका लिया हो। इस तरहके और भी बहुतसे बेहूदे अपवाद हैं। (च) दूसरोंको नीच समझनेकी दुर्वासनाने जनसमाजमें इतना गहरा स्थान जमाया कि उनकी सेवाके लिये पंडितों और त्यागियोंके आसन कम्पित हुए। इसमें बेचारे शूद्र बुरी तरहसे पीसे गये। वे मनुष्य थे परन्तु पशुसे भी नीचे माने गये । पशुके ऊपर लादा गया भोजन पवित्र बना रहा परन्तु उस पशुको हाँकनेवाला अगर अछूत हो तो वह भोजन भी अछूत हो जाने लगा । इसके -समर्थनमें स्वार्थी पंडितोंने एड़ीसे चोटीतक पसीना बहाया । शूद्र शरीरको अपवित्र सिद्ध करनेके लिये शास्त्र बने । उन्हें शास्त्र पढ़नेका अधिकार न रहा, पूजा करनेका अधिकार न रहा, मुनि बननेका अधिकार न रहा, यहाँ तक कि नगरमें आने-तकका आधिकार छीना गया; और यह घोर पाप, अन्याय और अत्याचार नहीं माना गया किन्तु, धर्म माना गया। इस प्रकार जो जातिभेद आजीविकाकी सुविधाके लिये बनाया गया था उसने मनुष्यके टुकड़े टुकड़े कर दिये और मनुष्यको मनुष्यभक्षी बना दिया । भोजनके जो नियम सदाचार और स्वास्थ्यकी रक्षाके लिये बनाये गये थे उनसे सदाचार और स्वास्थ्यकी हत्या होने लगी। लोग मांसमें शुद्धि-अशुद्धिका विचार करने लगे। गुणकी पूजा न रही । आत्माको स्वामीके स्थानसे गिराकर शरीरको स्वामी बनाया गया । धर्मको लोग आत्मामें न ढूँढकर चमड़ेमें ढूँढ़ने लगे । ऐसे समय जैनधर्मने घोषणा की कि जो लोग इस प्रकार शरीरको महत्त्व देते हैं और आत्माके गुणोंकी अवहेलना करते हैं वे
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy