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________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग सम्यक्त्वी नहीं हैं, मत्पथपर नहीं हैं, जैनी नहीं हैं । इस प्रकारका शरीर-पूजाके त्यागको सम्यक्त्वका-जैनत्वका—एक अंग कहा गया और इसका नाम निर्विचिकित्सा रक्खा गया । स्वामी समन्तभद्रने निर्विचिकित्साका लक्षण बहुत ही अच्छा किया है जिसका भावार्थ यह है शरीर तो स्वभावस अपवित्र है; (उसमें पवित्रता देखना भूल है) उसकी पवित्रता तो रत्नत्रयसे, अर्थात सच्चे धर्मसे, है इसलिये किसी भी शरीरसं घृणा न करके गुणमें, धर्ममें, प्रेम रखना चाहिये । यह निर्विचिकित्सता है। इसलिय जैनधर्म जातिपातिक बन्धनोंका विरोधी है, ऊँच नीची दुर्वासनाका विरोधी है । धर्म और मोक्षके समस्त अधिकार वह सबको देता है। उच्च-नीचका सम्बन्ध वह शरीरसे नहीं, सदाचारसे मानता है । व्यभिचारको पाप मानते * हुए भी वह व्यभिचारजातताको पाप नहीं मानता । __शरीरकी पवित्रताके मूढ़तापूर्ण सिद्धान्तसे जगत्के कल्याणमें बाधा पहुँचती है । हम समताकी भावना भूल जाते हैं जो चारित्रका . १ स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता ॥ -रत्नकरंड श्रावकाचार । * चिह्नानि विटजातस्य संति नांगेषु कानिचित् । अनार्यमाचरन्कश्चिजायते नीचगोचरः ॥ -रविषेणाचार्य । व्यभिचारजातताके कोई भी चिह्न अंगोमें नहीं होते जिनसे वह नीच कहला. सके । दुराचारसे ही मनुष्य नीच होता. है।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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