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________________ १२ जैनधर्म-मीमांसा हैं, मैं आत्मा हूँ और मेरे साथ लगा रहनेवाला पर-तत्त्व पुद्गल जुदा है । मैं इस 'पर' के बन्धनमें पड़कर पराधीन हूँ, दुःखी हूँ, मुझे इस बन्धनको तोड़ना चाहिए । यह समझकर वह शरीरकी अपेक्षा आत्माको मुख्यता देता है, शरीर के लिए कोई पाप नहीं करता । इस तरह द्वैत-भावना उसे निर्विकार बननेको प्रोत्साहित करती है । इस तरहके बहुतसे उदाहरण दिये जा सकते हैं । उन परसे हमें मालूम होगा कि धर्मको प्राप्त करनेके लिए जो सम्प्रदाय बने हैं, वे जब बने थे तब उस द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावके अनुसार किसी उपयोगी – कल्याणकारी - तत्त्वको लेकर बने थे। तभी वे खड़े हो सके । इसलिए मैं इस बातको कहनेका साहस करता हूँ कि सम्प्रदायोंके मौलिक (असली ) रूपोंका धर्मके साथ - कल्याणके साथ — कोई विरोध नहीं है । - हाँ, हर एक सम्प्रदायके सिद्धान्तोंका पीछेसे दुरुपयोग होता है । परन्तु इससे हम उन सम्प्रदायोंको बुरा नहीं कह सकते । दुरुपयोग तो अच्छे से अच्छे तत्त्वका होता है । अहिंसा सरखि श्रेष्ठ तत्त्वका दुरुपयोग होकर कायरताका प्रचार हुआ है । दीक्षाके नामपर बालक-विक्रय या बालक - चोरी भी होती है, द्वैतके नामपर स्वार्थका ही पोषण हो सकता है, अद्वैत के नामपर सब स्त्रियोंमें अद्वैत भावना रखकर व्यभिचारका पोषण हो सकता है। इसलिए दुरुपयोगको हटाकर हमें हरएक सम्प्रदायके मौलिक रूपपर विचार करना चाहिए और उसी दृष्टिसे उसकी आलोचना करना चाहिए । तब हमें सब सम्प्रदाय अपने अपने द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावके अनुसार अविरुद्ध और अभिन्न मालूम होंगे, और अपनी योग्यतानुसार हम उन सभीसे लाभ उठा सकेंगे ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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