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________________ धर्मका स्वरूप यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है. कि अगर इस प्रकार सब धर्मोको अच्छा साबित करनेकी कोशिश की जायगी, तो अच्छे और बुरेका विवेक ही नष्ट हो जायगा, सब लोग वैनयिक मिथ्यादृष्टि हो जायँगे । परन्तु मेरे उपर्युक्त वक्तव्यमें इस प्रश्नका उत्तर है। मेरे उपर्युक्त वक्तव्यमें सर्व-धर्म-समभावका जो विवेचन किया गया है, उसमें सब धर्मोको सर्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके लिये अच्छा नहीं बताया है, किन्तु यह कहा गया है कि सब धर्मोका अपने अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमें उपयोगी स्थान है। किस द्रव्यक्षेत्र-काल-भावमें किस धर्मका कितना उपयोगी स्थान है, इसका निर्णय तो विवेकसे होता है; जब कि वैनयिक मिथ्यादृष्टिके पास विवेक नामकी कोई चीज़ ही नहीं होती। __ यह हो सकता है कि एक धर्म अधिक समयके लिये और अधिक प्राणियोंके लिये उपयोगी हो और दूसरा कम हो, परन्तु इससे कोई भी निरुपयोगी नहीं कहा जा सकता। सबका अपना अपना स्थान है । सुईकी अपेक्षा तलवारकी कीमत ज्यादः हो सकती है, परन्तु सुईका काम तलवार नहीं कर सकती; अपने अपने स्थानपर दोनों ही ठीक हैं । दोनोंको अपने अपने समयपर उपयोगी समझना एक बात है और स्वरूपमें अविवेक रखना दूसरी बात है । वैनयिक मिथ्यादृष्टि किसी धर्मकी उपयोगिता नहीं समझता, वह तो अविवेकसे सबको एक समझता है । इसलिये वैनयिक मिथ्यादृष्टिमें और सर्व-धर्मसमभावीमें जमीन आसमानसे भी अधिक अन्तर है। ___ यहाँ दूसरा प्रश्न यह उठता है कि अहिंसा आदि धर्मीका तत्त्व न्यूनाधिक रूपमें सब धर्मों में पाया जाता है, परन्तु विश्वकी समस्याको
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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