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________________ धर्मका स्वरूप ११ रहा है, चमड़ेको छेदकर मांसको छेद रहा है, मांसको छेदकर नसको छेद रहा है, नसको छेदकर हड्डीको छेद रहा है, हड्डीको छेदकर घायल कर दिया है। अच्छा हो भन्ते ! आर्य, मातापिताकी अनुज्ञा के बिना किसीको दीक्षित न करें। " इसके बाद महात्मा बुद्धने भिक्षुओंको एकत्रित किया और नियम बनाते हुए कहा भिक्षुओ, माता-पिताकी अनुज्ञाके बिना पुत्रको दीक्षित न करना चाहिए; जो करे उसे दुक्कट (दुष्कृत) का दोष है । "" आप देखें कि दीक्षाके मार्ग में यह रुकावट कितनी अच्छी थी ! महात्मा महावीरने तो यह रुकावट शुरू से ही रक्खी। इतना ही नहीं, अपने जीवन में ही उनने इसका पालन किया । माता-पिताकी अनुज्ञा के बिना वे कई वर्ष रुके रहे । आश्रम व्यवस्था, महात्मा बुद्धका अपवाद तथा इस विषय में महात्मा महावीरका प्रारम्भसे और महात्मा बुद्धका राहुलको दीक्षित करनेके बादका मध्य-मार्ग, ये तीनों अपने अपने देश - कालके लिए उपयोगी रहे हैं । इसलिए इन तीनों में कुछ विरोध नहीं कहा जा सकता । अब थोड़ासा विचार द्वैत और अद्वैतपर भी कीजिए | अद्वैतवादी कहता है कि सब जगत्का मूलं तत्त्व एक है, द्वैत भावना करना संसारका कारण है । इस प्रकारका विचार करनेवाला मनुष्य, यह मेरा स्वार्थ, वह दूसरेका स्वार्थ, यह विचार ही नहीं ला सकता । वह तो जगत् के हित में अपना हित समझेगा । जिस वैयक्तिक स्वार्थ के पीछे लोग नाना पाप करते हैं, वह वैयक्तिक स्वार्थ उसकी दृष्टिमें न रहेगा। वह निष्पाप बनेगा । द्वैतवादी कहेगा-मूल तत्त्व दो (L
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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