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________________ सम्यग्दशनक स्वरूप २३५ समयपर उसकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती थी । वह अनादि हो जाता । उपादान कारण भी कार्यके लिये आवश्यक है। मिट्टी न हो तो कुम्हार कितना ही प्रयत्न करे वह बिना किसी उपादान ( Matter ) के घड़ा नहीं बना सकता । उपादान कारण न माना जाय तो असत्से सत् होने लगेगा परन्तु हम अनुभवसे जानते हैं कि जो वस्तु नहीं है वह पैदा नहीं हो सकती । आधुनिक विज्ञानका भी यह मूल सिद्धान्त है । इस तरह कार्य छोटा हो या बड़ा उसके लिए निमित्त और उपादान इन दोनों कारणोंकी आवश्यकता होती है । कभी कभी निमित्त कारण अदृश्य रहता है परन्तु अदृश्य होने से उसका अभाव नहीं माना जाता । उदाहरणार्थ हम किसी अधपके आम या केलाको लाकर एक स्थानपर रख देते हैं; दो-तीन दिनमें वह बिना किसी प्रयत्नके आपसे आप पक जाता है । यहाँ स्पष्ट रूप में हमें पकनेका निमित्त कारण नहीं मालूम होता; फिर भी अगर कुछ निमित्त नहीं है तो वह दो-तीन दिन बाद क्यों पका ? पहिले क्यों न पक गया ? इससे मालूम होता है कि दो- तान दन में उसे बाहरकी कुछ सहायता ज़रूर मिली है, और वह वातावरण की गर्मी आदि है । इसी प्रकार कभी कभी उपादान कारण भी अदृश्य होता है । उदाहरणार्थ शीतऋतुकी रात्रिमें शीतका निमित्त पाकर वनस्पतिपर ओस पड़ जाती है । उन बिन्दुओंका उपादान पानी हमें दिखाई नहीं देता फिर भी हम कल्पना करते हैं कि वायुमण्डल में फैले सूक्ष्म जलकणोंसे ये ओसके बिन्दु बने हैं होनेसे उपादानका अभाव नहीं कहा जा सकता । । , उपादान अदृश्य कहने का मतलब
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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