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________________ २२४ जैनधर्म-मीमांसा हैं। वह वृत्ति मनोवृत्तिसे भी भीतरकी चीज़ है । उसे आत्मवृत्ति कहना चाहिये । आत्मा मनसे परे है। यह न समझिये कि दर्शकमें ही यह बात देखी जाती है । नाटकके सभी खिलाड़ी आँखोंमें कर्पूर लगाकर नहीं रोते । जो कच्चे खिलाड़ी हैं वे ही ऐसा करते हैं। जो पक्के खिलाड़ी हैं वे तो रोनेकी जगहपर सचमुच : रोते हैं हँसनेकी जगहपर सचमुच हँसते हैं । रोने-हँसनेका काम उनका मुख ही नहीं करता, मन भी करता है। किन्तु मनके भी भीतर एक वृत्ति है जो इसे नाटक समझती है; जो न हँसती है, न रोती है । उस वृत्तिको हम अनुभव करते हैं, समझते हैं, पर ठीक ठीक कह नहीं पाते । सम्यग्दृष्टि पक्का खिलाड़ी होता है इसलिये वह सब कार्य इतने अच्छे ढंगसे करता है कि किसीको उसके व्यवहारमें रूखापन या उदासीनता नहीं मालूम होती। वह भोगोंसे उदासीन है, कर्तव्यसे उदासीन नहीं। जो सम्यग्दृष्टि नहीं हैं किन्तु सम्यग्दृष्टि बननेका ढोंग करते हैं उनके व्यवहारमें नीरसता, रूखापन उपेक्षा आदि दोष होते हैं क्योंकि वे कच्चे खिलाड़ी हैं । जो सम्यग्दृष्टि हैं वे खेलको खेल समझकर अच्छी तरह खेलते हैं । वे जीतमें भी खुश हैं और हारमें भी खुश हैं । जो सामान्य मिथ्यादृष्टि हैं वे खेलको जीवन समझकर खेलते हैं। वे जीत-हारमें भीतरसे सुखी-दुःखी होते हैं। परन्तु जो मिथ्यादृष्टि होकर अपनेको सम्यग्दृष्टि कहलानेका ढोंग करते हैं, वे हँसनेकी जगह रोते हुए हँसते हैं जिससे कोई यह समझे कि ये खेलको खेल समझते हैं । परन्तु वास्तवमें वे खेलको खेल नहीं समझते । इसीलिए उन्हें बनावटी ढंगसे काम लेना पड़ता है। सूखापन ऐसे ही लोगोंमें पाया जाता है, सम्यग्दृष्टियोंमें नहीं।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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