SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० जैनधर्ममीमांसा श्यकता नहीं रह जाती है। तब तो एक नास्तिक भी सम्यग्दृष्टि हो सकेगा। उत्तर-नास्तिकता, आस्तिकता आदि पांडित्यरूपी रंगमंचके परदे हैं । सम्यग्दर्शनका ऐसी नास्तिकता-आस्तिकतासे कुछ सम्बन्ध नहीं है। कोई कितना ही नास्तिक क्यों न हो, फिर भी उसकी यह भावना तो रहती है कि मैं सुखी बनें । इस वाक्यमें जो 'मैं' है वही आत्मा है । इस आत्माको नास्तिक भी मानता है और आस्तिक भी मानता है । सच बात तो यह है कि जो सुखी रहनेकी कलामें या सुखमार्गमें विश्वास नहीं करता वही नास्तिक है, वही मिध्यादृष्टि है। __ शास्त्रोंमें जो आत्मा और शरीरको पृथक् अनुभव करनेकी बात लिखी है उसका अर्थ है स्व-पर-भेद-विज्ञान । जब तक हम स्व-पर-भेदविज्ञानको प्राप्त नहीं कर लेते तबतक हम पूर्ण सुखमार्गको प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि सुखी होनेके जो दो उपाय प्रथम अध्यायमें बताये गये हैं उनमें सुखी रहनेकी कला सीखना मुख्य है । इस कलामें निपुणता तभी प्राप्त हो सकती है जब हम अपनेको शरीरसे और अन्य बाह्य परिस्थितियोंसे अलग अनुभव करें। . सुखी रहनेकी कला एक मानसिक कला है। वह भावनाके ऊपर अवलंबित है । नाटकका पात्र रंगमंचके ऊपर राजा बनकर आता है, युद्ध करता है, पराजित होता है, उसका राज्य छिन जाता है, वह दुःखी होता है आदि । इन सब क्रियाओंको करते समय क्या वह भीतरसे दुःखी होता है ? क्या उसका दुःख उस राजाके समान है जिसका राज्य छिन गया है ! परन्तु क्या नाटकका पाच दुःखप्रदर्शनमें उस राजासे कुछ कम है ? नहीं, बल्कि
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy