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________________ सम्यग्दर्शनका स्वरूप नाटकका पात्र दुःखप्रदर्शनमें उस राजासे बाजी मार ले जायगा । नाटकका पात्र दुःखप्रदर्शन इसलिये नहीं करता कि उसे दुःख है बल्कि इसलिये करता है कि उसे दुःखका प्रदर्शन करना चाहिये । अथवा यों कहना चाहिये कि वह राज्य छिन जानेसे दुःख प्रदर्शन नहीं करता किन्तु वेतनके वशमें होकर करता है । सम्यग्दृष्टि जीवकी भावना भी नाटकके पात्रके समान होती है । वह धनी होकरके भी अपनेको धनी नहीं समझता, गरीब हो करके भी गरीब नहीं समझता । इसी प्रकार हरएक प्रकारके दुःख-सुखमें वह अपनेको दुःखी - सुखी नहीं समझता । वह दुःखित्त्व और सुखित्वका जो प्रदर्शन करता है वह इसलिये करता है कि उस समय उसे ऐसा प्रदर्शन करना चाहिये । २२१ जीवनके विषयमें जिसकी भावनाएँ इतनी उच्च हो गई हैं वह सुखी रहनेकी कला में पूर्ण निष्णात हो गया है । प्रश्न – यदि सम्यग्दृष्टि जीव इसी प्रकार व्यवहार करता है तो उसका जीवन एक विडम्बना है। जिन लोगोंसे उसे प्रेम नहीं है उनसे बनावटी प्रेमका व्यवहार करना उन्हें धोखा देना है । क्या इस प्रकारके नकली जीवनसे उसे घबराहट नहीं होती ? उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीव प्रेमका त्यागी नहीं होता वह तो विश्वप्रेमी होता है। जो जीव परसुखमें निजसुखका अनुभव करता है उसे प्रेमहीन नहीं कह सकते। वह सिर्फ मोहरहित होता है । उसका प्रेम परिमित व्यक्तियोंमें कैद नहीं रहता । परिमित व्यक्तियोंमें जो उसे प्रेमका प्रदर्शन करना पड़ता है वह कर्तव्य समझकर करता है । उनसे वह मोहित नहीं हो जाता । स्वकुटुम्ब,
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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