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________________ १९८ जैनधर्म-मीमांसा •rrrrrrrrrrra लिये तड़फड़ाते हैं; अन्तमें मर जाते हैं । बेहोशीमें मृतकताका भ्रम हो जानेसे ऐसी घटनाएँ सब जगह हुआ करती हैं। साधारण श्रेणीके लोग इसे भूतावेश मान लेते हैं। मध्यकालमें जैन मुनियों तकको यह डर रहता था कि मृतक शरीरमें कहीं भूत न घुस जायें । 'भगवती आराधना ' में* आराधक मुनिके मृतक संस्कारके वर्णनमें लिखा है “ मुनिके मृतक शरीरके पैरके अँगूठेको बाँधना चाहिये और छेदना चाहिये। यदि ऐसा न किया जायगा तो कोई देवता उस मुर्दे शरीरमें प्रवेश कर जायगा, इससे मुर्दा उठकर क्रीडा करेगा और बाधा देगा”। इससे यह बात मालूम होती है कि यह अन्धविश्वास बड़े बड़े मुनियोंके हृदयमें भी प्रवेश कर गया था। इसी अन्धविश्वासने आषाढ़भूतिके शिष्योंको धोखा दिया। आचार्य आषाढ़भूति जब उपर्युक्त कथनानुसार मृतककी तरह बेहोश हो गये तो उनके शिष्योंने उन्हें मुर्दा ही समझा । पछि जब वे होशमें आये तो शिष्योंने समझा कि ये बेहोश ही हुए थे; परन्तु कुछ समय बाद वे फिर मर गये इससे शिष्योंको आश्चर्य हुआ। शिष्योंने निश्चय किया कि आचार्य तो पहिले ही मरकर देव हुए थे परन्तु उन्होंने मृतक शरीरमें प्रवेश किया था और फिर वह देव मृतक शरीरको छोड़कर चला .. * बहुत दिन हुए मैंने 'सरस्वती' में ' जीवित समाधि' शीर्षक एक लेख पढ़ा था जिसमें ऐसी बहुत-सी घटनाओंका उल्लेख था। * गीदत्था कदकरणा महाबलपरकमा महासंता। बंधंति य छिन्दति य करचरणं: गुठ्ठयपदेसे । १९७३ । जदि वा एस णं कीरिज विही तो तत्थ देवदा कोई । आदाय ते कलेवरमुडिज रमिज बाधिज । १९७४ ।-भगवती आराधना। .
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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