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________________ मतभेद और उपसम्प्रदाय १९९ गया है । इसलिये अब इसका पता लगाना मुश्किल है कि अमुक मुनि, देव है या मुनि है । जिन मुनियों को हम देखते हैं सम्भव है वे मरचुके हों और देव होकर फिर अपने शरीर में प्रवेश करके काम कर रहे हों । इस प्रकार आषाढ़ भूतिके पुनरुज्जीवन और देवागमन के अन्धविश्वासने इस प्रकार के अव्यक्तवादको जन्म दिया । इस विचारके कारण संघने इनको अलग कर दिया। गनीमत हुई कि इन लोगोंकी बुद्धि ठिकाने आ गई इसलिये एक नया सम्प्रदाय खड़ा न हो पाया । अश्वमित्र वीर निर्वाणके २२० वर्ष बाद अश्वमित्रने, जो कि महागिरि सूरिके प्रशिष्य और कौण्डिन्यके शिष्य थे, यह वाद निकाला कि 'जीव तो प्रति-समय नष्ट होता है तब पुण्य-पापका फल कौन भोगेगा' । अन्य मुनियोंने उनके इस क्षणिकवादका खण्डन किया परन्तु जब ये न समझे तब इनका बहिष्कार कर दिया । ये कुछ साथियों के साथ मिथिलासे निकलकर काम्पिल्यपुर अर्थात् राजगृह आगये । वहाँ कुछ श्रावकोंने इन्हें मारनेका विचार किया । इनने कहा " जैन श्रावक होकर तुम जैन मुनियोंको मारते हो" ! श्रावकोंने कहा कि 'आपके सिद्धान्त के अनुसार तो जैनमुनि नष्ट हो गये' । तब इनकी समझमें अपनी भूल आई । और ये पहलेके समान मुनि हो गये । गंग - वीर निर्वाणके २२८ वर्ष बाद 'द्वैक्रियवाद' की उत्पत्ति हुई । महागिरि के प्रशिष्य और धनगुप्तके शिष्य गङ्ग थे । एक बार ये नदी पार कर रहे थे । सिर बिलकुल खुला हुआ था इसलिये सूर्यके तापसे सिर में बहुत गर्मी मालूम हो रही थी । इधर पैरोंमें नदीका -
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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